मातम में बदली बाल दिवस की खुशियां।मौन धारण कर बच्चों सहित जिलावासियों ने किया नमन।
【मुकेश सिंह जैतेश】
पटना/आरा:- बाल दिवस की खुशियां उस समय मातमी सन्नाटा में तब्दील हो गया जब विश्वप्रसिद्ध गणितीय डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह की निधन की खबर फिजा में फैली।देश के आन,बान औऱ शान पहले ही गुमनामी के अंधेरे में थे अब चिर चिरंतर निंद्रा में खो गए।हर ओर शोक की लहर छा गई।हर कोई वशिष्ठ बाबू के पैतृक निवास सदर प्रखंड के बसंतपुर की ओर दौर पड़ा।
बिहार सरकार के मंत्री जय कुमार सिंह सहित भोजपुर जिलाधिकारी रौशन कुशवाहा,पुलिस अधीक्षक सुशील कुमार के अलावा प्रशासनिक अधिकारीयों,जनप्रतिनिधियों एवं शुभचिंतको ने स्व. डॉ सिंह के पार्थिव शरीर पर पुष्प अर्पित कर श्रद्धा सुमन अर्पित किया।बालदिवस के कार्यक्रमों के बीच सभी ने दो मिनट का मौन रखकर भोजपुर के इस लाल को श्रद्धा सुमन अर्पित किया।भारत के इस भोजपुरिया ध्रुव तारे के रूप में सरस्वती के वरद पुत्र अब हमारे बीच नही रहें।कहते है मनुष्य की मृत्यु होती है लेकिन कृतित्व अमर रहता है।सरकारी उपेक्षा की वजह से बिहार की इस महान धरोहर को सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी का शिकार होना पड़ा।
हम बात कर रहे है विश्वविख्यात महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह की।कुछ दिन पूर्व हीं पीएमसीएच के आईसीयू में भर्ती इस इंसान रूपी कम्प्यूटर ने न जाने कितने गणित के फॉर्मूले दिए होंगे जिसे अमेरिका से लेकर रूस तक जापान से लेकर फ्रांस तक ने लोहा माना है।कॉलेज से लेकर आईआईटी और नासा तक का सफर करने वाले एवं अल्बर्ट आइंस्टीन के स्थापित सिद्धांत तक को चुनौती देने वाले इस महान शख्सियत की हालत दिन प्रतिदिन बहुत ही नाज़ुक होती गई।आज के इस दौर में इस शख्स को देखकर हर कोई हैरान हो जाता था,कि सरकारें इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती हैं।तकरीबन 45 साल से मानसिक बीमारी Schizophrenia से पीड़ित, गुमनामी में जी रहे वशिष्ठ बाबू जैसे शख्सियत के साथ एक बहुमूल्य प्रतिभा के बर्बाद हो जाने से न जाने हमारे कितनी पीढ़ियों पर इसका गहरा असर पड़ा।आज इस सरस्वती पुत्र की इस दशा में निधन हमारी असफ़ल सरकारों और सामाजिक स्तर पर हम सबके पतन की जिंदा बानगी है।
आज जनमानस के मानसपटल पर यह यक्ष प्रश्न कौंध रहा है कि सामान्य व्यक्तित्व का बेटा वशिष्ठ से आखिर क्या गलती हुई कि वे आज इस परिस्थिति में हैं?क्या सिर्फ और सिर्फ यही कि उनके पोर-पोर में देशभक्ति बसी थी? अमेरिका का बहुत बड़ा ऑफर ठुकरा कर अपनी मातृभूमि भारत की सेवा करने चले आए। और भारत माता की छाती पर पहले से बैठे सु (कु) पुत्रों ने उनको पागल बना दिया।जिनका जमाना था, जो गणित में आर्यभट्ट व रामानुजम का विस्तार माना गया था,वही वशिष्ठ, जिनके चलते पटना विश्वविद्यालय को अपना कानून तक बदलना पड़ा था। इस धुर्व तारे के सितारों को खाक बनने की काफी लम्बी दास्तान है।डॉ.वशिष्ठ ने भारत आने पर इंडियन इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी कोलकाता,की सांख्यिकी संस्थान में शिक्षण का कार्य प्रारम्भ किया।लोग बताते हैं की यही वह वक्त था,जब उनका मानसिक संतुलन बिगड़ा।शायद वे भाई-भतीजावाद वाली कार्य संस्कृति में खुद को फिट नहीं कर पाए। कई और बातें हैं।
शोध पत्र की चोरी, पत्नी से खराब रिश्ते …, दिमाग पर बुरा असर पड़ा। फिर सरकार और सिस्टम की बारी आई।नतीजा सबके सामने है।बिहार राज्य में भोजपुर ज़िले के बसंतपुर गांव में वशिष्ठ नारायण सिंह का जन्म 2 अप्रैल 1942 को हुआ था।पिता लाल बहादुर सिंह कॉन्सटेबल थे और उनकी पांच संतानें थी।आय बेहद कम थी लेकिन ख़र्चा ज़्यादा था, जिसके चलते पारिवारिक गरीबी का साया हमेशा से घर और जीवन पर रहा।बहरहाल इस तंगी में भी वशिष्ठ नारायण सिंह ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया और महान वैज्ञानिक आंइस्टीन के स्थापित सिध्दांत तक को सरेआम चुनौती दी।पटना साइंस कॉलेज में बतौर छात्र ग़लत पढ़ाने पर वह अपने गणित के अध्यापक को टोक देते थे।कॉलेज के प्रिंसिपल को जब पता चला तो उनकी अलग से परीक्षा ली गई जिसमें उन्होंने सारे अकादमिक रिकार्ड तोड़ दिए।पांच भाई-बहनों के परिवार में आर्थिक तंगी हमेशा डेरा जमाए रहती थी।लेकिन इससे उनकी प्रतिभा पर कभी ग्रहण नहीं लगा।वशिष्ठ नारायण सिंह जब पटना साइंस क़ॉलेज में पढ़ते थे तभी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली की नज़र उन पर पड़ी।कैली ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और 1965 में वशिष्ठ नारायण अमरीका चले गए।साल 1969 में उन्होंने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बन गए।नासा में भी काम किया लेकिन वहाँ उनका मन नहीं लगा और वे 1971 में अपने वतन भारत लौट आए।यहाँ वे पहले आईआईटी कानपुर, फिर आईआईटी बंबई,कोलकाता में नौकरी की।इस बीच 1973 में उनकी शादी वंदना रानी सिंह से हो गई।पारिवारिक सूत्रो कि माने तो यही वह वक्त था जब वशिष्ठ जी के असामान्य व्यवहार के बारे में लोगों को पता चलने लगा।साल 1974 में उन्हें पहला दौरा पड़ा, जिसके बाद शुरू हुआ उनका इलाज।1976 में उन्हें रांची में भर्ती कराया गया।पारिवारिक सदस्यों के मुताबिक़ इलाज अगर समय पर और ठीक से चलता तो उनके ठीक होने की प्रबल संभावना थी।लेकिन परिवार ग़रीब और सरकार की तरफ से मदद नगण्य था।1987 में वशिष्ठ नारायण अपने पैतृक गांव भोजपुर जिले के मुफ्फसिल थाना क्षेत्र के बसंतपुर लौट आए।फिर अचानक वर्ष 1989 में अचानक ग़ायब हो गए।काफी खोजबीन के बाद साल 1993 में वह बेहद दयनीय हालत में डोरीगंज,सारण में पाए गए।पागलपन के हालत में उन्हें जूठे पत्तल से खाना खाते हुए पाया गया।
वर्षो बाद एक बार फिर वशिष्ठ नारायण सिंह कुछ दिन पूर्व से ही बीमारी की वजह से पीएमसीएच् के आईसीयू में जीवन और मौत से जंग के बीच चर्चा में आए, और अब बस स्मृति शेष ही रह गए हैं,वह बीमारी से ग्रसित हो कर अपने भाई के परिवार के साथ ही रहते थे तथा जीवन की फार्मूलों पर रिसर्च करते करते गणित के फार्मूले ईजाद कर देते थे।उनकी हालत सिस्टम के मुंह पर जोरदार तमाचा नही तो और क्या है?।आज इस अनमोल धरोहर के पंच तत्व में विलीन होते ही सब ओर शून्य का साम्राज्य स्थापित होता प्रतीत हो रहा है।पूरा विश्व भारत के इस महान विभूति को नमन कर रहा है।