ज्ञान की बात

सत्य को सम्मान के साथ अपनाइए

“सत्य” भाषण वाणी का तप है, इससे “वाक सिद्धि” जैसी विभूतियाँ प्राप्त होती है, इसलिए सत्य भाषण का हर किसी को अभ्यास करना चाहिए उसके साथ ही “प्रिय भाषण” और “हित भाषण” के अलंकार भी जोड़ रखने चाहिए। सत्य तो बोलना ही चाहिए, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह प्रिय एवं मधुर भी हो और उस संभाषण से दूसरों का हित साधन भी होता हो। कटु, कर्कश, मर्मभेदी, दूसरों को लांछित, तिरस्कृत एवं अपमानित करने वाला, जिसमे दूसरों के अहित की संभावना हो ऐसा अनावश्यक सत्य भी कई बार सच बोलने के महान गुण को दोषयुक्त कर देता है । इसलिए इस विकृति से बचने के लिए सत्य को प्रिय और हित इन दो आदर्शों के साथ संयुक्त करके प्रयोग करने का निर्देश दिया है। अप्रिय और अहितकर सत्य का भी निषेध किया है “न ब्रूयात सत्यमप्रियम्।”

यह भ्रम दूर किया ही जाना चाहिए कि “सत्य” को अपनाने से मनुष्य धन और सम्मान की दृष्टि से घाटे में रहता है और झूठ का सहारा लेने पर आमदनी एवं इज्जत बढ़ सकती है। इसी प्रकार इस भ्रम का भी निवारण होना चाहिए कि सत्य बोलना अथवा सत्य का अवलंबन कठिन है। वस्तु स्थिति उन भ्रांत धारणाओं से सर्वथा विपरीत है। “सत्य” अति सरल है, जो बात जैसी है, उसे वैसे ही कह देने से मस्तिष्क पर कोई जोर नहीं पड़ता, कोई अबोध बालक या मंदबुद्धि भी बिना किसी कठिनाई के जो बात उसे मालूम है ज्यों की त्यों कह सकता है, किंतु यदि झूठ बोलना हो तो मस्तिष्क पर बहुत जोर देने की आवश्यकता पड़ेगी और ऐसी भूमिका बनानी पड़ेगी, जो पकड़ में न आ सके। मंद बुद्धि व्यक्ति झूठ बोले तो कहीं न कहीं ऐसी त्रुटि रह जाती है, जिससे वह अक्सर पकड़ में आ जाती है। कार्तिक के महीने में तरबूजे खाने की गप्प कोई मार तो सकता है, पर उसे यह भी ज्ञान होना चाहिए कि किस ऋतु में क्या चीज पैदा होती है ? यदि इसमें चूक हुई तो बनावट तुरंत खुल जाएगी। बढ़ा-चढ़ाकर कही बात के भ्रम में कोई बिरले ही आते हैं।

आमतौर से अधिकांश लोग समझ जाते हैं कि अपनी शान या शेखी जताने के लिए अथवा दूसरों को उल्लू बनाने के लिए यह बातें गढ़ी जा रही हैं। ऐसा संदेह होने पर उसकी इज्जत गिर जाती है और सामने भले ही न कहें मन में उसे झूठा मान लिया जाता है और झूठा व्यक्ति किसी का विश्वासपात्र नहीं हो सकता और न इज्जत पा सकता है। यह निश्चित है कि झूठ सरल है, सत्य कठिन है, यह मानने वालों को जानना चाहिए कि झूठ बोलना और उसे खुलने न देना किसी अति चतुर का अति कठिन कार्य है। सामान्य बुद्धि के लिए तो वह एक प्रकार से असंभव और इज़्जत को दाँव पर लगाने वाला ही है। जो असत्यवादी, अविश्वासी माना जाता है, उसे किसी का सच्चा सहयोग नहीं मिलता। स्वार्थ के लिए जो मित्र बने हुए थे, अवसर आने पर वे भी उसे धोखा देते हैं और गिरे में लात लगाते देखे जाते हैं ।