मानव जीवन की सफलता “कर्मयोग” में है, “कर्मभोग” में नहीं। इसलिए मनुष्य को श्रेय प्राप्त करने के लिए कर्मभोगी नहीं, कर्मयोगी बनना चाहिए। उसे जीवन की हर छोटी-बड़ी शाखा पर सामान्य रूप से संपूर्ण योग्यता और मनोयोग से ध्यान देना चाहिए। उस काम को जिसमें -अधिक लाभ है, जिसका फल अधिक मूल्यवान है, पूरे तन-मन से करना और जो अपेक्षाकृत कम लाभ की संभावना वाला है, उसकी उपेक्षा करना कर्म कौशल नहीं है। कार्य कुशलता का प्रमाण इस बात में है कि छोटे-से-छोटा काम भी इस कुशलता से किया जाए कि वह सुंदर और महत्त्वपूर्ण बनकर कर्त्ता की ईमानदारी का साक्षी जैसा बोल उठे। कर्म का स्वरूप ही मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव की तस्वीर है, उसी के अनुसार गुणी एवं गुणज्ञ लोग किसी कर्मयोगी को अंक दिया करते हैं उसका ठीक-ठीक मूल्यांकन किया करते हैं।
मनुष्य का सारा जीवन ही कर्मता से भरा हुआ है। किसी समय भी वह कर्म रहित होकर नहीं रह सकता। सोते-जागते, उठते-बैठते यहाँ तक कि श्वांस लेने में भी वह एक कर्म करता ही रहता है । श्रद्धा एवं लगन के साथ किया गया कोई भी काम मनुष्य को सद्भाव, उच्च विचार, उत्साह, संतोष, शांति प्रदान करता है। किसी भी भले काम में लगकर मनुष्य बाह्य संसार में कुछ भी सफलता प्राप्त करें, किंतु, आंतरिक लाभ शांति, आत्मसंतोष, उच्च विचार, सद्गुणावलोकन की दृष्टि तो प्राप्त होती ही है। मानसिक विकारों पर नियंत्रण प्राप्त होकर नैतिक तथा बौद्धिक उन्नति होती है । कुल मिलाकर कर्मयोगी को अंतर्बाह्य जीवन में सफलता ही मिलती है।
जय श्री राधे