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विलुप्ति का समा बांधे [गीत सलिल] | Abhilasha Bhardwaj

 विलुप्ति का समा बांधे 

ये मेरा  मन है क्यूं भाजे

मेरे मन की मेरे तन की 

मचलती आस तुम ही हो,,,

मैं जब भी छोड़ कर आया

तेरे दर को मेरे मालिक

मैं कितनी दूर चला आया 

मैं खुद से दूर चला आया….

मैं रातों को अंधेरे में 

मैं कांटों के बसेरों मैं 

ये आंखें बन्द थीं फिर भी

जो खोला  तो तुझे पाया….

मैं राहों में अकेला था 

दिलों में बस अंधेरा था 

मैं जब सब छोड़ कर आया

निशा ना कुछ भी रह पाया…

मेरी चौखट मैंने छोड़ी

मुहब्बत अपनों की तोड़ी

दिया उम्मीद का अब तो

दिलों में हूं जला आया…. 

उभरते शोर सन्नाटे 

ये तूने मुझको ही बांटे

सुलगती रेत चट्टानें 💥💓💛

ये मैदानों की आवाजें ….

तेरी किरणों के सागर में 

बनाए मेघ प्राणों के 

गरजते मेघ जब छाए 

बरसते मेघ जब आए…. 

मैं प्यासा हूं मरू जीवन

तु तृप्ति गागर भर लाया 

मेरा जीवन तु नवजीवन

मैं जीवन जीवन बन आया….

तु मेरी कल्पना बिंदु 

तु मेरी आस का सिंधु

मेरे शब्दों का मंगल तु

मेरे भावों का मंगल तु….

तेरी पूजा तेरा अर्चन

मैं मंगल गीत गा आया

तेरे चरणों के अर्पण में

समर्पण खुद को कर आया….

मैं भोगी था विलासी था मैं 

मैं का मी और दुराचारी 

तेरे नयनों के चितवन ने 

मेरी दृष्टि बदल डाली…. 

तेरी मुस्कान ने मीठी मेरी 

मेरी सृष्टि ही रच डाली 

 मैं शब्दों से तेरा पूजक

मैं पूजन थाल ले आया…

मैं अक्षर हार ले आया 

प्रेम व्यवहार ले आया

🌻💥🌿👍👍❤️🌿💥💥