“सामान्य व्यक्ति” और “असाधारण व्यक्ति” में जो एक बड़ा अंतर होता है, वह उनकी “बौद्धिक दासता” एवं स्वतंत्रता का ही होता है। सामान्य व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण में प्रचलित मान्यताओं, धारणाओं एवं विश्वासों को जाने-अनजाने ज्यों का त्यों अपना लेता है। वह उनके विषय में सत्य असत्य, तथ्य अथवा अतथ्य का तर्क लेकर न तो विचार करता है और न उसकी उपयोगिता – अनुपयोगिता की ओर दृष्टिपात करता है, जबकि स्वाधीन विचारधारा वाला किसी भी मान्यता अथवा विश्वास को तभी स्वीकार करता है, जब उसको विचारपूर्वक उपयुक्तता की कसौटी पर परख लेता है। वह किसी बात को केवल इसीलिए ही सत्य नहीं मान लेता कि वह पूर्वकाल से परंपरागत चली आती है। ऐसे ही स्वतंत्र एवं प्रगतिशील विचार वाले लोग सड़ी-गली मान्यताओं, अबुद्धि सम्मत विश्वासों एवं आधार धारणाओं से अलग होकर समयानुकूल युक्त एवं उपयोगी विचारधारा समाज अथवा राष्ट्र को देकर असामान्यता के लक्षण प्रकट करते और मानव समाज के पथ-प्रदर्शक बना करते हैं। यह क्षमता पराधीन अथवा पक्षपाती मस्तिष्क में नहीं होती कि वह समय की माँग, समाज की आवश्यकता को ठीक से देख-समझ और परख सके और तदनुसार पथ एवं प्रकाश दे सके।
पथ और प्रकाश लेकर असामान्य स्थिति पा सकना तो दूर पराधीन विचार तथा पक्षपाती मस्तिष्क वाला व्यक्ति मान्यताओं के प्रति दुराग्रह में अपनी हानि देखता हुआ भी उन्हें छोड़ नहीं पाता। मान्यताओं एवं विश्वासों के प्रति पूर्वाग्रह के कारण अनेक लोग प्रस्तुत परिस्थितियों से हारकर हानि तक कर लेते हैं। जैसे किसी की मान्यता है कि दूसरी जाति के व्यक्ति के हाथ का पानी नहीं पीना चाहिए, किंतु वह एक ऐसी परिस्थिति में फँस जाता है कि उसके पास न तो अपना लोटा-डोर है और न उस समय कोई परिचित व्यक्ति है तो उस पूर्वाग्रही के सामने प्यासे मरने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं रह जाता। ऐसे अनेक दुराग्रही व्यक्तियों के प्यास से मरने के समाचार सुनने में आए और आते रहते हैं। कभी किसी परिस्थिति विशेष में हो सकता है कि इस मान्यता की कोई आवश्यकता रही हो अथवा हो सके किंतु सामान्य जीवन व्यवहार में न तो इसकी कोई आवश्यकता है और न महत्त्व। ऐसी मूढ़ मान्यताओं के व्यक्ति स्टेशनों तक पर नलों अथवा सप्लाई का पानी नहीं पीते और न बच्चों को पीने देते हैं, जिससे वे अनेकों घंटों प्यास से खुद परेशान रहते और बच्चों को भी रखते हैं। खान-पान का संयम एवं शुद्धता ठीक है किंतु जब यह विवेक सम्मत बात मूढमान्यता बनकर किसी को पराधीन बना लेती है, तब उससे हानि होने के सिवाय कोई लाभ नहीं होता।
꧁जय श्री राधे꧂