Hindi News, हिंदी न्यूज़, Latest Hindi News, हिंदी ख़बरें , Breaking Hindi News,
ब्रह्मविद्या विहंगम योग

प्रश्न(Question_ कर्म, अकर्म तथा विकर्म क्या है? जीवन्मुक्त योगी का कर्म किस प्रकार होता है?]

कर्म और अकर्म  का ज्ञान रहस्यपूर्ण योगियों का ज्ञान है। शुभाशुभ  दो प्रकार के कर्म होते हैं, जिनके फल कर्म के कर्ता को  अवश्य भोगने पड़ते हैं। इसके लिए जन्म धारण करना पड़ता है और कालान्तर में मृत्यु होती है। इसे ही आवागमन का चक्र कहा गया है, जो दुख पूर्ण है।

कर्म, विकर्म और अकर्म का सही ज्ञान रखना आवश्यक है। 

कर्म वह है, जो सर्व- साधारण व्यक्ति द्वारा चतुष्टय अन्तःकरण एवं इन्द्रीयादि के द्वारा किया जाता है, इनके द्वारा हम जो भी पूजा-पाठ, जप-तप, उपासना, कीर्तन- भजन करते हैं, वे सभी शुभ कर्म है। इनके शुभ फलों को भोगने के लिए भी हमें पुनः जन्म-मरण के चक्कर में आना पड़ता है।

विकर्म वे विशेष कर्म है, जिन्हें करने पर हम कर्म बन्धन से छूटने की योग्यता प्राप्त करते हैं। गुरु-सेवा, सत्संग, अध्यात्मत्मिक साधनादि विकर्म है। ये साधारण व्यक्तियों द्वारा किये गये कर्म नहीं है, अपितु विशेष कर्म है, जिन्हें मुमुक्षु साधक करते हैं और ईश्वर-प्राप्ति के अधिकारी होते हैं। कुछ भाष्यकारों ने विकर्म का अर्थ निषिद्ध कर्म किया है, जो उचित नहीं है। विकर्म शब्द में ‘वि’ उपसर्ग लगा है, जो ‘विशेष’ अर्थ को प्रतिपादित करता है।

अकर्म उस कर्म को कहते हैं, जिसे जीवन्मुक्त कर्मयोगी करते हैं। सभी कर्मो को करता हुआ भी कर्म नहीं करने की स्थिति एक अवस्था विशेष है, वही अकर्म है। अकर्म के फल कर्ता को बन्धन में नहीं डालते। इस रहस्य को सारे शास्त्रों के विद्वान भी नहीं जानते, क्योंकि यह तो कर्म करने की विशेष युक्ति है कि कर्म तो करें, लेकिन वह कर्म नहीं करने- जैसा हो। आत्मिक चेतना को प्रभु में योग-युक्ति से सदा युक्त रखने वाले जीवन्मुक्त योगी अन्तःकरण इन्द्रीयादि के द्वारा जो लोक-कल्याण के निमित कर्म करते हैं, वे अकर्म है। अकर्म का अर्थ है “न कर्म” । ये परमात्मा-प्राप्त जीवन्मुक्त योगियों द्वारा लोक – कल्याण – निमित किये गये अनेक प्रकार के कर्म है। जीवन्मुक्त योगी की आत्मचेतना सदैव ब्रह्म, यानी परमात्मा में युक्त रहती है। वह चेतन भूमि में स्थित होकर इन्द्रीयादि के द्वारा कर्म करता है। चलते-फिरते, जागते – सोते, उठते -बैठते, बातें करते एवं संसार के सभी कर्मो को करते हुए भी उसकी चेतना परमात्मा से जुड़ी रहती है। अतः उसके द्वारा किये गये सभी कर्म, नहीं कर्म करने जैसे है। ऐसे ही कर्म अकर्म है, क्योंकि इनके फल-भोग के लिए कर्ता को पुनः कोई भी शरीर धारण नहीं करना पड़ता है। अतः ऐसे कर्म को ‘अकर्म’की संज्ञा दी गई है।

जीवनमुक्त योगी सदा ब्रह्म से जुड़ा रहकर अर्थात युक्त रहकर संसार मे लोक कल्याण के निमित्त कर्मरत रहते हैं। साधारण व्यक्ति उन्हें नहीं पहचानते। उनके कर्म भी साधारण व्यक्ति की दृष्टि में सामान्य मनुष्य द्वारा किये कर्म जैसे दिख पड़ते हैं। उनके कर्म में ‘अकर्म’ अर्थात ‘न ही कर्म’ देखना विशेष ज्ञान सम्पन्न पुरुष के लिए ही सम्भव है, इसलिए ऐसे पुरुष को मनुष्यों में बुद्धिमान कहा गया है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति स्वयं भी कर्म करने की उस विशेष युक्ति का ज्ञान रखने वाला होता है। वह स्वयं जीवन्मुक्त होता है। इसलिए उसे सर्व कर्मो का कर्ता होने पर भी ‘युक्त’ अर्थात योगी कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति ‘अकर्म’ अर्थात जीवन्मुक्त योगियों द्वारा होने वाले कर्मो के रहस्य को समझते है। जीवन्मुक्त पुरुषों द्वारा किये गए कर्म बन्धन के कारण नहीं होते, क्योंकि उनकी आत्म चेतना सदा ब्रह्म से नियुक्त रहती है और वे अपनी इंद्रियों द्वारा संसार के सारे कार्यो को करते रहते हैं। इस रहस्य को इस स्थिति प्राप्त कोई महापुरुष ही समझते है।

इस प्रकार जीवन्मुक्त योगियों द्वारा किये गये कर्म में अकर्म देखना और उस अकर्म में कर्म का सम्पादित होना देखना, यह सर्व साधारण के बस की बात नहीं है। इसे तो कोई इस युक्ति सम्पन्न योगीपुरुष ही समझ सकता है। 

ग्रंथ का नाम- अध्यात्म-शिखर आचार्य स्वतंत्रदेव जीवन-दर्पण