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भागवत कथा

धैर्य एक बहुमूल्य और विलक्षण गुण कैसे ?

“धैर्य” हमारे संकटकाल का मित्र है। इसी से हमें सांत्वना मिलती है। कैसी भी हानि या क्षति हो जाए, धैर्य उसे भुलाने का प्रयत्न करता है। 
धैर्य न हो तो मानसिक दौर्बल्य के कारण मन सदा भयभीत रहेगा। जब मनुष्य के मन में शंका बढ़ जाती है,  तब दुःख के मिट जाने पर उसका आभास रहा करता है। 
जो व्यक्ति “धीरजवान” होते हैं, वे संकट के समय अपने विवेक को नष्ट नहीं होने देते। उनके आत्मबल के कारण उस समय भी शांति मिलती है और दूसरे लोग भी उनका अनुकरण करने को बाध्य होते हैं। तब वह संकट उतना व्यथित नहीं करता, जितना कि धीरज के अभाव में।
“धैर्यवान” मनुष्य के अंतःकरण में अत्यंत शांति, भविष्य की सुखद आशा और उदारता की प्रबलता रहती है। वह कुदिन के फेर में पड़कर घबराता नहीं, बल्कि उन दिनों को हँसते हुए टालने की चेष्टा करता रहता है।
इसके विपरीत जिसके मन में धैर्य नहीं होता, उसके मन में जो आशा-निराशा की तरंगें उठती हैं, वे वैसी ही हैं जैसे कोई बालू की दीवार खड़ी होकर भी ढह पड़े। संकट के समय उसकी मानसिक वेदना बढ़ जाती है और वह अपने भावों पर नियंत्रण रखने में समर्थ नहीं होता। ऐसे लोगों की दशा बहुत खराब होती देखी गई है और उनमें भी कुछ अत्यंत दुर्बल प्रवृत्ति के मनुष्यों का मानसिक संतुलन तो यहाँ तक बिगड़ जाता है कि वे आत्महत्या तक कर बैठते हैं।
सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए ही नहीं, बल्कि अपने कर्तव्य पालनार्थ भी कर्मों को सुव्यवस्थित करने के लिए “धैर्य” आवश्यक है। मान लीजिए कि आप किसी मुकदमे में फँसे हैं, परंतु उसके निर्णय में विलंब है, इस बीच में कोई अधिकारी व्यक्ति उस मुकदमे की जाँच के समय आपको किसी बात पर डाँटता है तो उससे आपका विचलित हो उठना ही आपकी हार का कारण बन सकता है। यदि आप उसमें धैर्य से काम लें तो विजय प्राप्त कर सकते हैं।