त्योहार

अनन्त चतुर्दशी व बिधि विधान सहित व्रत की महिमा|

व्रत की महिमा
पौराणिक मान्यता के अनुसार महाभारत काल से अनंत चतुर्दशी व्रत की शुरुआत हुई। यह भगवान विष्णु का दिन माना जाता है। अनंत भगवान ने सृष्टि के आरंभ में चौदह लोकों तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल, भू, भुवः, स्वः, जन, तप, सत्य, मह की रचना की थी। इन लोकों का पालन और रक्षा करने के लिए वह स्वयं भी चौदह रूपों में प्रकट हुए थे, जिससे वे अनंत प्रतीत होने लगे। इसलिए अनंत चतुर्दशी का व्रत भगवान विष्णु को प्रसन्न करने और अनंत फल देने वाला माना गया है। मान्यता है कि इस दिन व्रत रखने के साथ-साथ यदि कोई व्यक्ति श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करता है, तो उसकी समस्त मनोकामना पूर्ण होती है। धन-धान्य, सुख-संपदा और संतान आदि की कामना से यह व्रत किया जाता है। भारत के कई राज्यों में इस व्रत का प्रचलन है। इस दिन भगवान विष्णु की लोक कथाएं सुनी जाती है।

इस दिन भगवान विष्णु की कथा, पूजा के लिए चतुर्दशी तिथि सूर्य उदय के पश्चात दो मुहूर्त में व्याप्त होनी चाहिए। पूर्णिमा का सहयोग होने से इसका बल बढ़ जाता है। यदि चतुर्दशी तिथि सूर्य उदय के बाद दो मुहूर्त से पहले ही समाप्त हो जाए, तो अनंत चतुर्दशी पिछले दिन मनाये जाने का विधान है। इस व्रत की पूजा और मुख्य कर्मकाल दिन के प्रथम भाग में करना शुभ माने जाते हैं। यदि प्रथम भाग में पूजा करने से चूक जाते हैं, तो मध्याह्न के शुरुआती चरण में करना चाहिए। मध्याह्न का शुरुआती चरण दिन के सप्तम से नवम मुहूर्त तक होता है।

जैसा इस व्रत के नाम से प्रतीत होता है कि यह दिन उस अंत न होने वाले सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु की भक्ति का दिन है।

यूं तो यह व्रत नदी-तट पर किया जाना चाहिए और हरि की लोककथाएं सुननी चाहिए। लेकिन संभव ना होने पर घर में ही स्थापित मंदिर के सामने हरि से इस प्रकार की प्रार्थना की जाती है- ‘हे वासुदेव, इस अनंत संसार रूपी महासमुद्र में डूबे हुए लोगों की रक्षा करो तथा उन्हें अनंत के रूप का ध्यान करने में संलग्न करो, अनंत रूप वाले प्रभु तुम्हें नमस्कार है।’

कैसे करें पूजा
प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर कलश की स्थापना करें। कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन में कुश से निर्मित अनंत की स्थापना की जाती है। इसके आगे कुंकूम, केसर या हल्दी से रंग कर बनाया हुआ कच्चे डोरे का चौदह गांठों वाला ‘अनंत’ भी रखा जाता है। कुश के अनंत की वंदना करके, उसमें भगवान विष्णु का आह्वान तथा ध्यान करके गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजन करें।

इस व्रत में सूत या रेशम के धागे को लाल कुमकुम से रंग, उसमें चौदह गांठे (14 गांठे भगवान श्री हरि के द्वारा 14 लोकों की प्रतीक मानी गई है) लगाकर राखी की तरह का अनंत बनाया जाता है। इस अनंत रूपी धागे को पूजा में भगवान पर चढ़ा कर व्रती अपने बाजु में बाँधते हैं। पुरुष दाएं तथा स्त्रियां बाएं हाथ में अनंत बाँधती है। यह अनंत हम पर आने वाले सब संकटों से रक्षा करता है। यह अनंत धागा भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला तथा अनंत फल देता है। यह व्रत धन पुत्रादि की कामना से किया जाता है। इस दिन नये धागे के अनंत को धारण कर पुराने धागे के अनंत का विसर्जन किया जाता है ।

पूजन मुहूर्त
चतुर्दशी तिथि प्रारंभ👉 16 सितम्बर को दोपहर 03 बजकर 10 मिनट से ।

चतुर्दशी तिथि समाप्‍त👉 17 सितम्बर को सायं 11 बजकर 44 मिनट तक।

अनंत चर्तुदशी पूजा का मुहूर्त👉 17 सितंबर को सुबह 06 बजकर 07 मिनट से दिन 11 बजकर 44 मिनट तक रहेगा।

चूंकि 17 तारीख को प्रातः 11:44 तक ही चतुर्दशी तिथि है, ऐसे में श्रीगणेश पूजन एवं विसर्जन प्रातः 11:44 से पहले करना ही शुभ रहेगा।

पूजन सामग्री
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* शेषनाग पर लेटे हुए श्री हरि की मूर्ति अथवा तस्वीर
* आसन (कम्बल)
* धूप – एक पैकेट
* पुष्पों की माला – चार
* फल – सामर्थ्यानुसार
* पुष्प (14 प्रकार के)
* अंग वस्त्र –एक
* नैवैद्य(मालपुआ )
* मिष्ठा्न – सामर्थ्यानुसार
* अनंत सूत्र (14 गाँठों वाले ) – नये
* अनंत सूत्र (14 गाँठों वाले ) – पुराने
* यज्ञोपवीत (जनेऊ) – एक जोड़ा
* वस्त्र
* पत्ते – 14 प्रकार के वृक्षों का
* कलश (मिट्टी का)- एक
* कलश पात्र (मिट्टी का)- एक
* दूर्बा
* चावल – 250 ग्राम
* कपूर- एक पैकेट
* तुलसी दल
* पान- पाँच
* सुपारी- पाँच
* लौंग – एक पैकेट
* इलायची – एक पैकेट
* पंचामृत (दूध,दही,घी,शहद,शक्कर)

अनंत चतुर्दशी व्रत पूजन विधि प्रारम्भ
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पुराणों मे इस व्रत को करने का विधान नदी या सरोवर पर उत्तम माना गया है। परंतु आज के आधुनिक युग में यह सम्भव नहीं है। अत: घर में ही पूजा स्थान पर शुद्धिकरण करके अनंत भगवान की पूजा करें तथा कथा सुने। साधक प्रात: काल स्नानादि कर नित्यकर्मों से निवृत हो जायें। सभी सामग्री को एकत्रित कर लें तथा पूजा स्थान को पवित्र कर लें। पत्नी सहित आसन पर बैठ जायें। पूजागृह की स्वच्छ भूमि पर कलश स्थापित करें। कलश पर शेषनाग की शैय्यापर लेटे भगवान विष्णु की मूíत अथवा चित्र को रखें। उनके समक्ष चौदह ग्रंथियों (गांठों) से युक्त अनन्तसूत्र (डोरा) रखें। इसके बाद ॐ अनन्तायनम: मंत्र से भगवान विष्णु तथा अनंतसूत्रकी षोडशोपचार-विधिसे पूजा करें। पूजनोपरांतअनन्तसूत्रको मंत्र पढकर पुरुष अपने दाहिने हाथ और स्त्री बाएं हाथ में बांध लें।

अनंन्तसागरमहासमुद्रेमग्नान्समभ्युद्धरवासुदेव।
अनंतरूपेविनियोजितात्माह्यनन्तरूपायनमोनमस्ते॥

अनंतसूत्रबांध लेने के पश्चात किसी ब्राह्मण को नैवेद्य (भोग) में निवेदित पकवान देकर स्वयं सपरिवार प्रसाद ग्रहण करें। पूजा के बाद व्रत-कथा को पढें या सुनें। कथा का सार-संक्षेप यह है- सत्ययुग में सुमन्तुनाम के एक मुनि थे। उनकी पुत्री शीला अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुशील थी। सुमन्तु मुनि ने उस कन्या का विवाह कौण्डिन्यमुनि से किया। कौण्डिन्यमुनि अपनी पत्नी शीला को लेकर जब ससुराल से घर वापस लौट रहे थे, तब रास्ते में नदी के किनारे कुछ स्त्रियां अनन्त भगवान की पूजा करते दिखाई पडीं। शीला ने अनन्त-व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनंत भगवान का पूजन करके अनन्तसूत्रबांध लिया। इसके फलस्वरूप थोडे ही दिनों में उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया।

पवित्रीकरण
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अब दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न पवित्रीकरण मंत्र का उच्चारण करें और सभी सामग्री , उपस्थित जन- समूह पर उस जल का छिंटा दें कर सभी को पवित्र कर लें ।

पवित्रीकरण मंत्र
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ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्व अवस्थांगत: अपिवा।
यः स्मरेत्‌ पुण्डरीकाक्षं स वाह्य अभ्यन्तर: शुचिः॥
आचमन
दाएँ हाथ में जल लें निम्न आचमन मंत्र के द्वारा तीन बार आचमन करें
“ॐ केशवाय नमः” मंत्र का उच्चारण करते हुए जल को पी लें।
“ॐ नारायणाय नमः” मंत्र का उच्चारण करते हुए जल को पी लें।
“ॐ वासुदेवाय नमः” मंत्र का उच्चारण करते हुए जल को पी लें।
तत्पश्चात“ॐ हृषिकेशाय नमः” कहते हुए दाएँ हाथ के अंगूठे के मूल से होंठों को दो बार पोंछकर हाथों को धो लें।

पवित्री धारण
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तत्पश्चात् निम्न मंत्र के द्वारा कुश निर्मित पवित्री धारण करे –
पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः ।
तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम् ।
स्वस्तिवाचन –
हाथ में अक्षत तथा पुष्प लें और निम्न मंत्रों को बोलते हुए थोड़ा –थोड़ा पुष्प भूमि पर छोड़ते जायें ।
ॐ गणेशाम्बिकाभ्यां नम : । ॐ केशवाय नम : । ॐ नारायणणाय नम : । ॐ माधवाय नम : । ॐ गोविंदाय नम : । ॐ विष्णवे नम : । ॐ मधुसूदनाय नम : । ॐ त्रिविक्रमाय नम : । ॐ वामनाय नम : । ॐ श्रीराधाय नम : । ॐ ह्रषीकेशाय नम : । ॐ पद्मनाभाय नम : । ॐ दामोदराय नम : । ॐ संकर्षणाय नम : । ॐ वासुदेवाय नम : । ॐ प्रद्युम्नाय नम : । ॐ अनिरुद्धाय नम : । ॐ पुरुषोत्तमाय नम : । ॐ अधोक्षजाय नम : । ॐ नरसिंहाय नम : । ॐ अच्युताय नम : । ॐ जनार्दनाय नम : । ॐ उपेंद्राय नम : । ॐ हरये नम : । ॐ श्रीकृष्णाय नम : । ॐ श्रीलक्ष्मीनारायणाभ्यां नम : । ॐ उमामहेश्वराभ्यां नम : । शचीपुरन्दराभ्यां नम : । मातृपितृभ्यां नम : । इष्टदेवताभ्यो नम : । ग्रामदेवताभ्यो नम : । स्थानदेवताभ्यो नम : । वास्तुदेवताभ्यो नम : । सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम : । सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नम : ।

संकल्प : –
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हाथ मे अक्ष्त ,पान का पत्ता ,सुपारी तथा सामर्थ्यानुसार सिक्के लेकर संकल्प मंत्र उच्चारित करते हुए संकल्प करें –
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्यॐ विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्द्धे विष्नुपदे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे, कलिप्रथमचरणे भूर्लोके जम्बुद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशे अमुकक्षेत्रे (अपने नगर तथा क्षेत्र का नाम लें) बौद्धावतारे अमुकनाम संवत्सरे श्रीसुर्ये अमुकयाने अमुक ऋतो ( ऋतु का नाम लें ) महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे भाद्र मासे शुक्ल पक्षे चतुर्दशी तिथौ अमुक वासरे ( वार का नाम लें ) अमुक नक्षत्रे ( नक्षत्र का नाम लें ) अमुक योगे अमुक-करणे अमुकराशिस्थिते चंद्रे ( जिस राशि में चंद्रमा स्थित हो,उसका नाम लें ) अमुकराशिस्थिते श्रीसुर्ये (जिस राशि में सुर्य स्थित हो,उसका नाम लें ) देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु यथायथा- राशिस्थान-स्थितेषु सत्सु एवं ग्रह-गुणग़ण-विशेषण- विशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ अमुक गोत्र (अपने गोत्र का नाम लें ) अमुकनाम ( अपना नाम ले ) ऽहं मम सकुटुम्बस्य क्षेमैश्वर्यायुरारोग्यचतुर्विधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थं मया आचरितं वा आचार्यमाणस्य व्रतस्य सम्पूर्णफलावाप्त्यर्थं श्रीमदनन्तपूजनमहंकरिष्ये। श्रीमदनन्तव्रतांगत्वेन गणेशपूजनं ,यमुनापूजनादिकं च करिष्ये।
फिर कथा कहें ।।

व्रत कथा
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एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्तसूत्रपर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया-जी नहीं, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है। परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्यने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा और अनन्तसूत्रको जादू-मंतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझकर तोड दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया। इस जघन्य कर्म का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन-हीन स्थिति में जीवन-यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिन्यऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए। उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनन्तदेवका पता पूछते जाते थे। बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्यमुनि को जब अनन्त भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को उद्यत हुए। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें आत्महत्या करने से रोक दिया और एक गुफामें ले जाकर चतुर्भुजअनन्तदेवका दर्शन कराया।

भगवान ने मुनि से कहा-तुमने जो अनन्तसूत्रका तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे। कौण्डिन्यमुनिने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भगवान ने आगे कहा-जीव अपने पूर्ववत् दुष्कर्मोका फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है। कौण्डिन्यमुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया।

भगवान जगदीश्वर जी की आरती
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ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी! जय जगदीश हरे।
भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे॥

जो ध्यावै फल पावै, दुख बिनसे मन का।
सुख-संपत्ति घर आवै, कष्ट मिटे तन का॥ ॐ जय…॥

मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूं किसकी।
तुम बिनु और न दूजा, आस करूं जिसकी॥ ॐ जय…॥

तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतरयामी॥
पारब्रह्म परेमश्वर, तुम सबके स्वामी॥ ॐ जय…॥

तुम करुणा के सागर तुम पालनकर्ता।
मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ ॐ जय…॥

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूं दयामय! तुमको मैं कुमति॥ ॐ जय…॥

दीनबंधु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे।
अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ॐ जय…॥

विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ॐ जय…॥

तन-मन-धन और संपत्ति, सब कुछ है तेरा।
तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा॥ ॐ जय…॥
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गणेश विसर्जन ( गोबर गणेश )
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यह यथार्थ है कि जितने लोग भी गणेश विसर्जन करते हैं उन्हें यह बिल्कुल पता नहीं होगा कि यह गणेश विसर्जन क्यों किया जाता है और इसका क्या लाभ है ??

हमारे देश में हिंदुओं की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि देखा देखी में एक परंपरा चल पड़ती है जिसके पीछे का मर्म कोई नहीं जानता लेकिन भयवश वह चलती रहती है।

आज जिस तरह गणेश जी की प्रतिमा के साथ दुराचार होता है, उसको देख कर अपने हिन्दू मतावलंबियों पर बहुत ही ज्यादा तरस आता है और दुःख भी होता है।

शास्त्रों में एकमात्र गौ के गोबर से बने हुए गणेश जी या मिट्टी से बने हुए गणेश जी की मूर्ति के विसर्जन का ही विधान है।

गोबर से गणेश एकमात्र प्रतीकात्मक है माता पार्वती द्वारा अपने शरीर के उबटन से गणेश जी को उत्पन्न करने का चूंकि गाय का गोबर हमारे शास्त्रों में पवित्र माना गया है इसीलिए गणेश जी का आह्वाहन गोबर की प्रतिमा बनाकर ही किया जाता है।

इसीलिए एक शब्द प्रचलन में चल पड़ा :-
“गोबर गणेश”

इसिलिए पूजा, यज्ञ, हवन इत्यादि करते समय गोबर के गणेश का ही विधान है । जिसको बाद में नदी या पवित्र सरोवर या जलाशय में प्रवाहित करने का विधान बनाया गया।

गणेश जी के विसर्जन का क्या कारण है ?
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भगवान वेदव्यास ने जब शास्त्रों की रचना प्रारम्भ की तो भगवान ने प्रेरणा कर प्रथम पूज्य बुद्धि निधान श्री गणेश जी को वेदव्यास जी की सहायता के लिए गणेश चतुर्थी के दिन भेजा।

वेदव्यास जी ने गणेश जी का आदर सत्कार किया और उन्हें एक आसन पर स्थापित एवं विराजमान किया।
(जैसा कि आज लोग गणेश चतुर्थी के दिन गणपति की प्रतिमा को अपने घर लाते है)

वेदव्यास जी ने इसी दिन महाभारत की रचना प्रारम्भ की या “श्री गणेश” किया ।
वेदव्यास जी बोलते जाते थे और गणेश जी उसको लिपिबद्ध करते जाते थे। लगातार दस दिन तक लिखने के बाद अनंत चतुर्दशी के दिन इसका उपसंहार हुआ।

भगवान की लीलाओं और गीता के रस पान करते करते गणेश जी को अष्टसात्विक भाव का आवेग हो चला था जिससे उनका पूरा शरीर गर्म हो गया था और गणेश जी अपनी स्थिति में नहीं थे ।

गणेश जी के शरीर की ऊष्मा का निष्कीलन या उनके शरीर की गर्मी को शांत करने के लिए वेदव्यास जी ने उनके शरीर पर गीली मिट्टी का लेप किया। इसके बाद उन्होंने गणेश जी को जलाशय में स्नान करवाया , जिसे विसर्जन का नाम दिया गया।

बाल गंगाधर तिलक जी ने अच्छे उद्देश्य से यह शुरू करवाया पर उन्हें यह नहीं पता था कि इसका भविष्य बिगड़ जाएगा।

गणेश जी को घर में लाने तक तो बहुत अच्छा है परंतु विसर्जन के दिन उनकी प्रतिमा के साथ जो दुर्गति होती है वह असहनीय बन जाती है।

आजकल गणेश जी की प्रतिमा गोबर की न बना कर लोग अपने रुतबे, पैसे, दिखावे और अखबार में नाम छापने से बनाते हैं।

जिसके जितने बड़े गणेश जी उसकी उतनी बड़ी ख्याति उसके पंडाल में उतने ही बड़े लोग और चढ़ावे का तांता।

इसके बाद यश और नाम अखबारों में अलग। सबसे ज्यादा दुःख तब होता है जब customer attract करने के लिए लोग DJ पर फिल्मी अश्लील गाने और नचनियाँ को नचवाते हैं ।

आप विचार करके हृदय पर हाथ रखकर बतायें कि क्या यही उद्देश्य है गणेश चतुर्थी या अनंत चतुर्दशी का ?? क्या गणेश जी का यह सम्मान है ??
इसके बाद विसर्जन के दिन बड़े ही अभद्र तरीके से प्रतिमा की दुर्गति की जाती है।

वेदव्यास जी का तो एक कारण था विसर्जन करने का लेकिन हम लोग क्यों करते हैं यह बुद्धि से परे है । क्या हम भी वेदव्यास जी के समकक्ष हो गए ? क्या हमने भी गणेश जी से कुछ लिखवाया ?

क्या हम गणेश जी के अष्टसात्विक भाव को शांत करने की हैसियत रखते हैं ?

गोबर गणेश मात्र अंगुष्ठ के बराबर बनाया जाता है और होना चाहिए , इससे बड़ी प्रतिमा या अन्य पदार्थ से बनी प्रतिमा के विसर्जन का शास्त्रों में निषेध है।

और एक बात और गणेश जी का विसर्जन बिल्कुल शास्त्रीय नहीं है। यह मात्र अपने स्वांत सुखाय के लिए बिना इसके पीछे का मर्म अर्थ और अभिप्राय समझे लोगों ने बना दिया।

एकमात्र हवन, यज्ञ, अग्निहोत्र के समय बनने वाले गोबर गणेश का ही विसर्जन शास्त्रीय विधान के अंतर्गत आता है ।

प्लास्टर ऑफ paris से बने, चॉकलेट से बने, chemical paint से बने गणेश प्रतिमा का विसर्जन एकमात्र अपने भविष्य और उन्नति के विसर्जन का मार्ग है।

इससे केवल प्रकृति के वातावरण, जलाशय, जलीय पारिस्थितिकीय तंत्र, भूमि, हवा, मृदा इत्यादि को नुकसान पहुँचता है।

इस गणेश विसर्जन से किसी को एक अंश भी लाभ नहीं होने वाला। हाँ बाजारीकरण, सेल्फी पुरुष, सेल्फी स्त्रियों को अवश्य लाभ मिलता है लेकिन इससे आत्मिक उन्नति कभी नहीं मिलेगी ।

इसीलिए गणेश विसर्जन को रोकना ही एकमात्र शास्त्र अनुरूप है।

चलिए माना कि आप अज्ञानतावश डर रहे हैं कि इतनी प्रख्यात परंपरा हम कैसे तोड़ दें तो करिए विसर्जन। लेकिन गोबर के गणेश को बनाकर विसर्जन करिए और उनकी प्रतिमा 1 अंगुष्ठ से बड़ी नहीं होनी चाहिए।

मुझे पता है मेरे इस पोस्ट से कुछ कट्टर झट्टर बनने वालों को ठेस लगेगी और वह मुझे हिन्दू विरोधी घोषित कर देंगे।

पर मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगा और सही बातों को आपके सामने रखता रहूँगा ।
बाकी का – सोई करहुँ जो तोहीं सुहाई ।

स्पष्टिकरण- यह पोस्ट जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से साझा की गयी है। सहमत होना या ना होना आपका फ़ैसला है। बात सिर्फ़ इतनी है हमें उन मान्यताओं को अपनाना होगा जिससे सनातन संस्कृति की सही छवि दुनिया भर में फैले।

गणेश विसर्जन के शुभ मंत्र
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गणेश विसर्जन के दौरान मंत्रों का जाप विशेष माना जाता है, माना जाता है कि यदि इन मंत्रों का जाप करते हुए बप्पा को विदा करने से वे कई आशीर्वाद प्रदान करते हैं। वहीं ये मंत्र मुख्यरूप से दो प्रकार के हैं।

1. श्री गणेश विसर्जन मंत्र
यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकीम्।
इष्टकामसमृद्धयर्थं पुनर्अपि पुनरागमनाय च॥

2. श्री गणेश विसर्जन मंत्र
गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थाने परमेश्वर।
मम पूजा गृहीत्मेवां पुनरागमनाय च॥

ऐसे करें विसर्जन
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श्री गणेश विसर्जन से पूर्व स्थापित श्री गणेश प्रतिमा का संकल्प मंत्र के बाद षोड़शोपचार पूजन-आरती करना चाहिए। गणेश जी की मूर्ति पर सिंदूर चढ़ाएं। मंत्र बोलते हुए 21 दूर्वा-दल चढ़ाएं। 21 लड्डुओं का भोग लगाएं। इनमें से 5 लड्डू मूर्ति के पास चढ़ाएं और 5 ब्राह्मण को प्रदान कर दें। शेष लड्डू प्रसाद के रूप में बांट दें।

इसके बाद गणेशजी की प्रतिमा को प्रणाम करके फिर आज्ञा लेकर श्रद्धापूर्वक उन्हें उठाएं। गणपति भगवान को तालाब, नदी या फिर घर के आंगन में ही कुंड बनाकर विसर्जित कर दें।
विसर्जन के समय गणपति का मुख सामने की ओर होना चाहिए। आगे मुख करके विसर्जन न करें। बप्पा के जयकार के साथ यह प्रार्थना करें कि अगले बरस जल्दी आना गणेशजी से श्रद्धा पूर्वक अपने स्थान को विदा होने की प्रार्थना करें।

गणपति विसर्जन मुहुर्त
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हर वर्अष नंत चतुर्दर्शी के दिन गणपति विसर्जन का शुभ पर्व मनाया जाता है। ज्योतिष के अनुसार गणेश विसर्जन का शुभ मुहूर्त प्रकाशित किया जाता है।