मनुष्य जैसा सोचता है और जैसा करता है, वैसा ही बन जाता है। उसका विकास और भविष्य उसके विचारों की दिशा पर निर्भर करता है। जैसे बीज होगा, वैसा ही पौधा उगेगा; वैसे ही जैसे विचार होंगे, वैसे ही कर्म बनेंगे और जैसे कर्म होंगे, वैसी ही परिस्थितियाँ बनेंगी। इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य अपनी परिस्थितियों का दास नहीं, बल्कि उनका निर्माता और स्वामी है।
वास्तविक शक्ति साधनों में नहीं, बल्कि विचारों में निहित है। भाग्य की रचना मस्तिष्क में ही होती है और मस्तिष्क का अर्थ है—विचार। यही कारण है कि मानसशास्त्र के आचार्यों ने विचार-पद्धति को भाग्य का आधार माना है। विचारों की दिशा ही व्यक्ति को कर्मों की ओर प्रेरित करती है और अंततः वही उसके जीवन का स्वरूप गढ़ती है।
विचार शक्ति, आंतरिक बल और पुरुषार्थ है। यदि इसे सही दिशा में नियोजित किया जाए तो प्रगति और सफलता निश्चित है। किंतु अस्त-व्यस्त और विकृत कल्पनाओं में उलझने से यह शक्ति व्यर्थ हो जाती है और संकट का कारण भी बनती है। रावण इसका सबसे बड़ा उदाहरण है—ज्ञान और विद्वता के बावजूद उसके अव्यवस्थित चिंतन और स्वार्थपरक दृष्टिकोण ने ही उसकी दुर्गति कर दी।
सच्चाई यह है कि विचार ही सूक्ष्म स्तर का कर्म है। हर कार्य का मूल बीज विचार ही है। समय की तरह विचार-प्रवाह को भी योजनाबद्ध ढंग से सत्प्रयोजनों में लगाना आवश्यक है। जब मनुष्य अपने विचारों को सुनियोजित कर लक्ष्य से जोड़ लेता है, तभी उसके कर्म सार्थक होते हैं और जीवन में सफलता मिलती है।