नई दिल्ली, अक्टूबर 2023: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि समलैंगिक विवाह को वैध बनाने का अधिकार न्यायपालिका के पास नहीं, बल्कि संसद के पास है। इस फैसले में अदालत ने LGBTQ+ समुदाय के अधिकारों को लेकर संवेदनशीलता तो दिखाई, लेकिन समलैंगिक विवाह या नागरिक संघों को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया।
फैसले के प्रमुख बिंदु
संसद का अधिकार: पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा कि विवाह जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक एवं कानूनी विषयों पर निर्णय लेना संसद का कार्य है, न कि न्यायपालिका का।
कानूनी मान्यता नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया, जिससे LGBTQ+ समुदाय को निराशा हुई।
भेदभाव पर चिंता: कोर्ट ने यह भी माना कि LGBTQ+ व्यक्तियों को समाज में भेदभाव और असमानता का सामना करना पड़ता है, जिसे दूर करने की आवश्यकता है।
सरकार को सुझाव: न्यायालय ने केंद्र सरकार को एक उच्चस्तरीय समिति बनाने की सिफारिश की, जो समलैंगिक जोड़ों के कानूनी अधिकारों और उनके लाभों पर विचार करेगी।
समुदाय की प्रतिक्रिया
इस फैसले के बाद LGBTQ+ समुदाय के कई कार्यकर्ताओं और संगठनों ने निराशा व्यक्त की। कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह फैसला उनके मूल अधिकारों को सीमित करता है और समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। हालांकि, सरकार द्वारा गठित की जाने वाली उच्चस्तरीय समिति को लेकर उम्मीदें भी बनी हुई हैं।
सरकार का रुख
केंद्र सरकार ने पहले ही सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दी थी कि विवाह के कानून में कोई भी बदलाव संसद के माध्यम से ही किया जा सकता है। सरकार का यह भी कहना था कि विवाह एक सामाजिक और धार्मिक संस्था है, और इसे कानूनी रूप से बदलना समाज की सहमति के बिना उचित नहीं होगा।
आगे की राह
यह फैसला LGBTQ+ अधिकारों के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है। हालाँकि, अब सभी की नजरें इस बात पर रहेंगी कि संसद इस मुद्दे पर क्या रुख अपनाती है और सरकार द्वारा प्रस्तावित उच्चस्तरीय समिति किस दिशा में कार्य करती है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने LGBTQ+ समुदाय के विवाह अधिकारों को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया, लेकिन उनके समग्र अधिकारों पर ध्यान देने की आवश्यकता को स्वीकार किया। अब यह संसद और सरकार पर निर्भर करेगा कि वे इस विषय पर आगे क्या कदम उठाते हैं।