सरयू तट पर श्रीराम और भरत का संवाद — जहाँ दण्ड का अर्थ करुणा से पुनः परिभाषित हुआ।
अयोध्या की संध्या, सरयू के तट पर श्रीराम अपने भाइयों लक्ष्मण और शत्रुघ्न संग टहल रहे थे। तभी भरत ने मौन तोड़ते हुए पूछा —
“भैया! माता कैकई ने मंथरा के साथ मिलकर जो षड्यंत्र किया, क्या वह राजद्रोह नहीं था? उनके कारण आपको वनवास भोगना पड़ा, पिता महाराज का निधन हुआ — फिर आपने उन्हें दण्ड क्यों नहीं दिया?”
श्रीराम मुस्कुराए और बोले —
“भरत! किसी कुल में यदि एक धर्मपरायण पुत्र जन्म ले, तो वह अपने असंख्य पितरों के अपराधों का प्रायश्चित कर देता है। जिस माँ ने तुम्हारे जैसा महात्मा पुत्र जन्मा हो, उसे दण्ड कैसे दिया जा सकता है?”
भरत फिर बोले —
“यह तो मोह है भैया! राजा का दण्डविधान मोह से मुक्त होता है। कृपया बताइए, एक राजा के रूप में आपने उन्हें दण्ड क्यों नहीं दिया?”
राम गंभीर हो गए। क्षण भर मौन रहकर बोले —
“अपने सगे-संबंधियों के अपराध पर कोई दण्ड न देना ही इस सृष्टि का सबसे कठोर दण्ड है, भरत।
माता कैकई ने अपनी भूल का दण्ड जीवनभर भुगता है —
उन्होंने अपना पति खोया, अपने पुत्र खोए, अपना सम्मान खोया; पर अपराधबोध से कभी मुक्त नहीं हो सकीं।
वनवास समाप्त हो गया, सब खुश हुए — पर वे नहीं हो सकीं।
राजा किसी स्त्री को इससे कठोर दण्ड और क्या दे सकता है?”
राम की आँखें नम हो उठीं। भरत मौन थे — और फिर वे सहज ही बड़े भाई से लिपट गए।
राम ने आगे कहा —
“और उनकी भूल को अपराध क्यों समझें, भरत? यदि मेरा वनवास न होता, तो संसार भरत और लक्ष्मण जैसे भाइयों का अतुल्य प्रेम कैसे देख पाता? मैंने तो आज्ञा का पालन किया, पर तुम दोनों ने स्नेह में वनवास भोगा।
वनवास न होता, तो संसार यह कैसे सीखता कि भाइयों का प्रेम कैसा होता है!”
राम केवल एक नाम नहीं हैं —
वे एक आदर्श हैं, एक जीवन पथ हैं।
राम का जीवन यह सिखाता है कि दण्ड देना सरल है, पर क्षमा और करुणा ही सच्चा धर्म है।
जय श्रीराम!