नागा साधु अपने संन्यास जीवन के दौरान वस्त्र नहीं पहनते, जिसे दिगंबर (नग्न) रूप कहा जाता है। यह सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि एक गहरे आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धांत से जुड़ा हुआ है।
1. वैराग्य और सांसारिक मोह से मुक्ति
- वस्त्र व्यक्ति की सामाजिक पहचान और भौतिक संपत्ति का प्रतीक होते हैं।
- जब कोई नागा साधु संन्यास लेता है, तो वह अपना सब कुछ त्याग देता है, जिसमें वस्त्र भी शामिल होते हैं।
- यह इस बात का प्रतीक है कि अब वह किसी भी सांसारिक बंधन में नहीं है।
2. दिगंबर संप्रदाय और शिवत्व की प्राप्ति
- नागा साधु भगवान शिव के अनन्य भक्त होते हैं।
- शिव स्वयं दिगंबर माने जाते हैं, यानी वस्त्रों से मुक्त, केवल भस्म से विभूषित।
- नागा साधु अपने शरीर पर भस्म लगाकर शिवत्व को धारण करते हैं और शिव के समान बनने का प्रयास करते हैं।
3. शरीर के प्रति विरक्ति और अहंकार का नाश
- नग्नता का अर्थ यह भी है कि साधु को अपने शरीर को लेकर कोई संकोच या झिझक नहीं होनी चाहिए।
- यह शरीर मात्र पंचतत्वों का बना है और एक दिन नष्ट हो जाएगा—इस तथ्य को आत्मसात करने के लिए वे इसे ढकने की आवश्यकता नहीं समझते।
- यह अहंकार के नाश का भी प्रतीक है, क्योंकि वस्त्र धारण करना अक्सर व्यक्तित्व को स्थापित करने से जुड़ा होता है।
4. प्रकृति के साथ एकरूपता
- वस्त्र त्यागने से नागा साधु प्रकृति के अधिक करीब आ जाते हैं।
- वे सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि का सामना सीधे अपने शरीर से करते हैं, जिससे उनकी सहनशक्ति और आत्मसंयम विकसित होता है।
5. ध्यान और साधना में सहायता
- नागा साधु योग और तपस्या में लीन रहते हैं।
- नग्न रहने से उन्हें किसी भी बाहरी वस्त्र से ध्यान भटकने की समस्या नहीं होती।
- उनका पूरा ध्यान आत्मज्ञान और ईश्वर प्राप्ति पर केंद्रित रहता है।
6. मृत्यु और नश्वरता की अनुभूति
- नग्नता यह दर्शाती है कि जब कोई व्यक्ति जन्म लेता है, तो वह वस्त्रों के बिना आता है और मृत्यु के बाद भी कुछ साथ नहीं ले जाता।
- इस सत्य को स्वीकार कर, वे जीवन-मरण के चक्र से ऊपर उठने का प्रयास करते हैं।
क्या सभी नागा साधु वस्त्र त्यागते हैं?
- अधिकतर नागा साधु पूर्ण रूप से नग्न रहते हैं, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में लंगोट या कंबल का प्रयोग भी कर सकते हैं।
- वैष्णव परंपरा में कुछ नागा साधु वस्त्र धारण करते हैं, लेकिन वे भी भौतिक सुखों से मुक्त रहते हैं।
निष्कर्ष
नागा साधुओं के वस्त्र त्यागने के पीछे केवल परंपरा ही नहीं, बल्कि गहरी आध्यात्मिक समझ और वैराग्य की भावना छिपी होती है। वे इस भौतिक संसार से पूरी तरह मुक्त होकर केवल आत्मा, शिव और ब्रह्म की साधना में लीन हो जाते हैं।