(पुण्य कर्म वह श्रेष्ठ होता है जिसमे ” अहंकार ” ना हो , ऐसा पुण्य प्रभु को समर्पित होता है और प्रारब्ध ( भाग्य ) में संचित हो जाता है !)
एक गांव मे एक सेठ रहता था जो कि किसी जमाने में बहुत बड़ा धनवान था। परन्तु समय बीतने के साथ साथ वह गरीब होता चला गया ! जब सेठ धनी था उस समय सेठ ने बहुत पुण्यं किए, गउशाला बनवाई, गरीबों को खाना खिलाया, अनाथ आश्रम बनवाए और भी बहुत से पुण्य किए थे लेकिन जैसे जैसे समय गुजरा सेठ निर्धन हो गया।
एक समय ऐसा आया कि राजा ने ऐलान कर दिया कि यदि किसी व्यक्ति ने कोई पुण्य किए हैं तो वह अपने पुण्य बताएं और अपने पुण्य का जो भी उचित फल है ले जाए। यह बात जब सेठानी ने सुनी तो सेठानी सेठ को कहती है कि हमने तो बहुत पुण्य किए हैं, तुम राजा के पास जाओ और अपने पुण्य बताकर उनका जो भी फल मिले ले आओ। सेठ इस बात के लिए सहमत हो गया और दुसरे दिन राजा के महल जाने के लिए तैयार हो गया।
जब सेठ महल जाने लगा तो सेठानी ने सेठ के लिए चार रोटी बनाकर बांध दी कि रास्ते मे जब भुख लगी तो रोटी खा लेना। सेठ राजा के महल को रवाना हो गया गर्मी का समय दोपहर हो गई, सेठ ने सोचा सामने पानी की कुंड भी है वृक्ष की छाया भी है क्यों ना बैठकर थोड़ा आराम किया जाए व रोटी भी खा लुंगा। सेठ वृक्ष के नीचे रोटी रखकर पानी से हाथ मुंह धोने लगा तभी वहां पर एक कुतिया अपने चार पांच छोटे छोटे बच्चों के साथ पहुंच गई और सेठ के सामने प्रेम से दुम हिलाने लगी क्यों कि कुतिया को सेठ के पास के अनाज की खुशबु आ रही थी। कुतिया को देखकर सेठ को ” दया ” आई ( दया एक देविक विचार एवं धर्मका स्तम्भ है ) , सेठ ने दो रोटी निकाल कुतिया को डाल दी। अब कुतिया भुखी थी और बिना समय लगाए कुतिया दोनो रोटी खा गई और फिर से सेठ की तरफ देखने लगी, सेठ ने सोचा कि कुतिया के चार पांच बच्चे इसका दुध भी पीते है दो रोटी से इसकी भुख नही मिट सकती और फिर सेठ ने बची हुई दोनो रोटी भी कुतिया को डाल कर पानी पीकर अपने रास्ते चल दिया। सेठ राजा के दरबार मे हाजिर हो गया और अपने किए गए पुण्य के कामों की गिनती करने लगा और सेठ ने अपने द्वारा किए गए सभी पुण्य कर्म विस्तार पुर्वक राजा को बता दिए और अपने द्वारा किए गए पुण्य का फल देने बात कही। तब राजा ने कहा कि आपके इन पुण्य का कोई फल नही है यदि आपने कोई और पुण्य किया है तो वह भी बताएं। शायद उसका कोई फल मै आपको दे पाउं।
सेठ कुछ नही बोला और यह कहकर बापिस चल दिया कि यदि मेरे इतने पुण्य का कोई फल नही है तो और पुण्य गिनती करना बेकार है, अब मुझे यहां से चलना चाहिए। जब सेठ बापिस जाने लगा तो राजा ने सेठ को आवाज लगाई कि सेठ जी आपने एक पुण्य कल भी किया था वह तो आपने बताया ही नही। सेठ ने सोचा कि कल तो मैनें कोई पुण्य किया ही नही राजा किस पुण्य की बात कर रहा है क्यों कि सेठ भुल चुका था कि कल उसने कोई पुण्य किया था। सेठ ने कहा कि राजा जी कल मैनें कोई पुण्य नहीं किया तो राजा ने सेठ को कहा कि कल तुमने एक कुतिया को चार रोटी खिलाई और तुम उस पुण्य कर्म को भुल गए। कल किए गए तेरे पुण्य के बदले तुम जो भी मांगना चाहते हो मांग लो वह तुझे मिल जाएगा। सेठ ने पुछा कि राजा जी ऐसा क्यों? मेरे किए पिछले सभी कर्म का कोई मुल्य नही है और एक कुतिया को डाली गई चार रोटी का इनका मोल क्यों? राजा के कहा कि सेठ जो पुण्य करके तुमने याद रखे और गिनकर लोंगों को बता दिए वह सब बेकार है क्योंकि तेरे अन्दर मै (अहंकार ) बोल रहा है कि यह मैनें किया तेरा सब कर्म व्यर्थ है जो तूं करता है और लोगों को सुना रहा है !
सेवा वह होती है जिसे करके भूल जाए क्योंकि वह सेवा प्रभु को अर्पित हो जाती है ! कल तुमने रास्ते मे कुतिया को चार रोटी खिलाकर पुण्य कमाया और भूल गए ,यह पुण्य तेरी सबसे बड़ी सेवा है, क्योंकि इसमें “अहंकार ” नहीं है ! इस पुण्य के बदले तुम मेरा सारा राज्य भी ले लो वह भी बहुत कम है।
*विशेष* —- नेक कर्म ( परोपकार ) करने की इच्छा देविक विचारो जैसे त्याग, प्रेम, दया , संवेदनशीलता , सहयोग की भावना इत्यादि के साथ उत्पन्न होती है , देवता हमारी सुख समृद्धि के देने वाले है अतः परोपकार से उत्पन्न पुण्य फल भी हमारे प्रारब्ध में संचित हो जाते है और जन्म जन्मांतर तक पुण्य फल ( सुख समृद्धि ) देते रहते है , आवश्यकता है ऐसे नेक कर्मो का “अहंकार ” ना करे क्योंकि अहंकार एक आसुरी प्रवृति है !
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