Many examples of exemplary idealism of sacrifice
अंत:करण की उत्कृष्टता को “श्रद्धा” के नाम से जाना जाता है । उसका व्यावहारिक स्वरुप है -“भक्ति” । यों साधारण बोलचाल में दोनों का उपयोग पर्यायवाची शब्दों के रूप में होता है । फिर भी कुछ अंतर तो है ही । “श्रद्धा” अंतरात्मा की आस्था है । श्रेष्ठता के प्रति असीम प्यार के रूप में उसकी व्याख्या की जा सकती है । “भक्ति” उसका व्यावहारिक रूप है । करुणा, उदारता, सेवा, आत्मीयता के आधार पर चलने वाली विभिन्न गतिविधियों को भक्ति कहा जा सकता है । देश-भक्ति, आदर्श-भक्ति, ईश्वर-भक्ति आदि के रूपों में त्याग-बलिदान के, तप-साधना के अनुकरणीय आदर्शवादिता के अनेकों उदाहरण इसी भक्ति भावना की प्रेरणा से बन पड़ते हैं ।
“आस्थायें”-“आकांक्षायें” जब परिपक्व स्थिति में पहुँचती हैं और निश्चय पूर्वक लक्ष्य की और बढ़ती है, तो उन्हें “संकल्प” कहते हैं । संकल्प की प्रचंड शक्ति सर्वविदित है । संकल्पों के धनी व्यक्तियों ने ही सामान्य साधनों और सामान्य अवसरों में भी चमत्कारी सफलताएँ उपलब्ध की है । “संकल्प” की प्रखरता मस्तिष्क और शरीर दोनों को अभीष्ट दिशा में घसीट ले जाती है और असंख्य अवरोधों से टकराती हुई उस लक्ष्य तक पहुँचाती है, जिसे आरंभ में असंभव तक समझा जाता था ।
पुरुषार्थियों की यशगाथा से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं । वस्तुतः उन्हें “संकल्प” शक्ति का चमत्कार ही कह सकते हैं। यहाँ इतना ही समझने की आवश्यकता है कि संकल्प उभरकर आने से पूर्व विश्वास बनकर मन:क्षेत्र में अपनी जडें जमाता है या उस बीज का प्रत्यक्ष पौधा संकल्प रूप में प्रकट होता है । “विश्वास” की प्रतिक्रिया ही “संकल्प” है । यही कारण है कि अंत:करण की उच्च स्तरीय आस्थाओं को श्रद्धा-विश्वास का रूप दिया गया है । वे उत्कृष्ट स्तर की होने पर शिव-पार्वती का युग्म बनते हैं और निकृष्ट होने पर आसुरी क्रूर कर्मों में इस प्रकार निरत दीख पड़ते हैं, जैसा कि उपाख्यानों में दानवों एवं शैतान का चित्रण किया जाता है ।