उत्तर- संत-महात्माओं का दर्शन करना, उनका प्रवचन सुनना, यह सत्संग की प्रारंभिक सीढ़ी है। केवल इतना से ही सत्संग की पूर्णता नहीं होती है।
आज आम आदमी में यह धारणा बन गई है कि केवल संत-महात्माओं के दर्शन और प्रवचन को सुनना ही वास्तव में ‘ सत्संग ‘ है। यह एक सामान्य सोच है और अधिकांश व्यक्ति इसी प्रकार के क्रिया-कलाप को ‘ सत्संग ‘ समझ लेते हैं। इस प्रकार के क्रिया-कलापों से भी कुछ आध्यात्मिक बाह्य तत्वज्ञान की प्राप्ति होती है। मगर वास्तविक रूप में ‘ सत्संग ‘ अभी इससे बहुत आगे है।
अध्यात्म-विद्या के दो भेद हैं- पहला आध्यात्मिक तत्वज्ञान और दूसरा आंतरिक भेद-साधन। आध्यात्मिक तत्वज्ञान भी निर्भ्रान्त होना चाहिए। इसके साथ आंतरिक भेद-साधन का विधिवत नियमित अभ्यास भी होना चाहिए।
इन दोनों की प्राप्ति के लिए तत्वदर्शी आप्त सद्गुरु की शरण में रहकर तत्वबोध प्राप्त करके और साथ में उनके द्वारा उपदिष्ट साधन पर संयम-अभ्यास करके ही सत्संग की सर्वोच्च भूमि की प्राप्ति हो सकती है।
इसलिए सत्संग के नाम पर जो कुछ प्रारम्भिक अवस्थाएँ हैं, उतना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसका लाभ लेते हुए अपनी आध्यात्मिक यात्रा सद्गुरु के ज्ञानालोक में सतत आगे बढ़ाते हुए अन्ततः सत्संग की सर्वोच्च भूमि यानी सत्यरूपी परमात्मा का संग प्राप्त करना ही मानव-जीवन का परम पुरुषार्थ है।
(अनंत श्री सद्गुरु महर्षि स्वतंत्रदेव जी महाराज रचित सद्ग्रन्थ अथातो अध्यात्म जिज्ञासा से)