संसार को विषवृक्ष कहा गया है, उसमें आपत्तियाँ भी कम नहीं हैं । यहाँ यंत्रवत् सब कुछ चलता है।*
*”दूर रहते हुए और न चाहते हुए भी “कठिनाइयाँ” आती हैं, कष्ट घेर लेते हैं ।” फिर सारे जीवनभर का क्रम हो जाता है।*
*”उन कठिनाइयों से लड़कर अपने लिए सुख-सुविधा की स्थिति तैयार करना ।”*
*इसी प्रयत्न में सारा जीवन बीत जाता है, जब पीछे मुड़कर देखते हैं, तब पश्चाताप होता है कि यह जीवन कठिनाइयों में ही बीत गया*
*”न मिला सुख,””न पाई शान्ति,” मस्तिष्क में सुखों की तृष्णा का अंबार लाद लिया ।”*
*”दुःख का कारण क्या था ?” “यह एक विचारणीय बात है ।”सारे जीवन के क्रिया-कलापों को जब हम प्रकृति की माया के साथ तौलते हैं, तब पता चलता है कि संसार समष्टि रूप में जैसा था,*
*”हमने उसे अज्ञानवश वैसा ही नहीं लिया वरन् उसे अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करते रहे ।”*
*”संसार इतना बड़ा है कि हम उसे अपने अनुकूल बना ही नहीं सकते ।” अपने इस अज्ञान का फल दुःख रूप में मिला । हम इतने छोटे थे कि संसार की राजी में अपनी राजी मिलाकर सुखी रह सकते थे । भीगी हुई लकड़ियों को आग नहीं जला पाती, उसी प्रकार ज्ञान से भीगे हुए मनुष्य को मानसिक दुःख वेदना नहीं दे सकते हैं ।*
*”संसार समुद्र है, ज्ञान-युक्ति उसकी नौका, जो इस नाव पर चढ़ लेता है, उसके सांसारिक दुःख भी मिट जाते हैं और वह संसार की यथार्थ स्थिति जान लेने के कारण जन्म-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है..!!*