जैसे माया मन रमैं, यों जो रामरमाई।
तारा मंडल वेधी के, जहां के सो तहां जाई।
यह एक सामान्य सच्ची घटना है । किंतु हमारी सम्पूर्ण समस्याओ का मूल इसी में छिपा हुआ है ।
एक युवक अपनी समस्या के समाधान के लिए एक संत के पास गया । उसने संत से कहा की हमारा मन भगवान में नहीं लगता है । मन लगाने के लिए कोई उपाय बताये ।
संत ने हंसते हुए कहा कि रुपये गिनने मे मन लगता है कि नहीं ? युवक ने कहा हां बहुत लगता है । संत ने पुनः पूछा की क्यो लगता है ? युवक ने उतर दिया कि हमे रुपयों की बहुत आवश्यकता है । संत ने कहा कि तुम्हारे प्रश्र का उतर तुम ने ही दे दिया है ।भगवान में मन नहीं लगता है क्योंकि हमें भगवान की कोई आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती । जिस दिन भगवान की वास्तविक आवश्यकता का अनुभव होगा , उस दिन वे स्वतः ही अच्छे लगने लगेंगे और मन अपने आप उनकी ओर दौड़ेगा, लगाना नहीं पड़ेगा ।
यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो पता चलेगा कि हमारा मन अधिकांश समय व्यर्थ चिन्तन करता रहता है । जिससे हमें या दूसरो कों कुछ भी लाभ नहीं होता । वास्तविक बात यह है कि मन जिस वस्तु को ग्रहन करेगा, वह उसी का चिंतन करेगा ।
मन संसार में जाता है क्योंकि मन संसार के उपभोग में ज्यादा डूबा रहता है । इसमें इसका दोष ही क्या है किंतु हम तो भगवान के अंश हैं तो फिर क्युं भगवान में मन नहीं लगाता ?
भगवान में मन ठीक तब लगेगा जब वह भगवान में आसक्त हो जायेगा । यही बात हमारे पुष्टि मार्ग में श्री महाप्रभुजी ने बताइ है कि पूरे दिन सेवा मे रहो कि श्री ठाकुरजी से हमारा मन दूर होवे ही नहीं ।जितना अधिक पठन,मनन,चिन्तन होगा उतना ही मन श्री ठाकुरजी मे आसक्त होगा ।
*‼️राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ‼️*
*‼️सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने‼️*