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ज्ञान की बात

स्वर्वेद के अन्दर कोश क्या है?

उत्तर- इन पाँच भौतिक शरीर में हृदय में स्थित सुषम्ना नाड़ी में आत्मा का निवास है, जिसकी चेतना को, जिसे सुरति कहते हैं, मन ग्रहण करके प्रकृति जगत का कार्य सम्पन्न करता है।
 यह प्राकृतिक कार्य है, जो आत्मा पर प्रकृति का आवरण पड़ जाने से सम्पन्न होता है  इसी आवरण को कोश कहते हैं, जो आत्मा के अपने वास्तविक रूप को भूल जाने से अज्ञान के कारण प्रकट होता है। कोश पाँच है-अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश, और आनन्दमयकोश।*
*(1).अन्नमयकोश :-* *अन्नमयकोश यह पार्थिव देह है। अन्न से ही पालन-पोषण होकर अन्त में इसका विनास हो जाता है। इसलिए अन्न द्वारा बनी हुई यह पार्थिव स्थूल देह है, जिसका सर्व विकास नश्वर है। अन्न पृथ्वी से उत्पन्न होता है और पृथ्वी का विशेष गुण इस शरीर मे होने से यह स्थूल बन जाता है। अतः पृथ्वी तत्व के विशेष गुण होने से यह स्थूल देह पार्थिव देह कही जाती है। यही अन्नमय कोश है, जिससे इस स्थल शरीर का निर्माण होता है। मैं मोटा हूँ, मैं पतला हूँ-यह अन्नमयकोश पार्थिव देह का ही धर्म है, निज शुद्ध स्वरूप का नहीं।*
*(2.) प्राणमय कोश :– पंच प्राणों का द्वारा ही इस शरीर का कार्य-व्यवहार होता है। समस्त नल, चक्र, प्राणों द्वारा ही चलते हैं। समस्त संसार का जीवन प्राण है। इसके बिना जीवन का विनाश हो जाता है। प्राण के आधार पर ही शरीर की समस्त क्रियाएँ सम्पन्न होती है। इन पंच प्राणों को मिलाकर प्राणमय कोश होता है। मैं भूखा हूँ, मैं प्यासा हूँ-यह प्राणमय कोश का ही धर्म है, निज सुद्ध स्वरूप का नहीं।*
*(3.) मनोमयकोश :- पांच कर्मेन्द्रियाँ, अहंकार और मन मिलकर मनोमयकोश बनता है। इस कोश में मन प्रधान है। इसलिए यह मनोमयकोश कहते हैं। मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ-यह सुख-दुःख मनोमयकोश का धर्म है। मन  ही द्वारा सुख-दुःख का ज्ञान होता है। मन में ही सारी सृष्टि समाई हुई है। जब आत्मा योग द्वारा अपने चेतन शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है तो उस काल में उसे सुख-दुःख एवं जगत का ज्ञान नहीं रहता है। यह अपने शुद्ध चेतन स्वरूप से परमानन्द का उपभोग करता है।*
*(4.)विज्ञानमयकोश :- पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, बुद्धि और चित्त मिलकर विज्ञानमयकोश बनता है। इस कोश में बुद्धि प्रधान है।  इसलिए इसे विज्ञानमयकोश कहते हैं। इसमें सर्वदेह-संघात की शक्ति छिपी रहती है। मैं ज्ञानी हूँ, मैं विद्वान हूँ- यह विज्ञानमयकोश का धर्म है, निज शुद्ध स्वरूप का नहीं। जड़ प्रकृति के अज्ञानमय सम्बन्ध से आत्मा को पूर्ण ज्ञान नहीं होता।*
*(5.)आनन्दमयकोश :- जिसमें प्रेम, प्रसन्नता न्यून और प्रेयानन्द सुख अधिक है एवं जिसका आधार कारण प्रकृति है, उसको आनन्दमय कोश कहते हैं। यह आनन्दमयकोश प्राकृतिक है। चेतन आत्मा का आनन्द इस कोश में नहीं है। दो प्रकार के आनन्द होते हैं :- प्रेयानन्द और श्रेयानन्द। प्राकृतिक आनन्द प्रेयानन्द है और ब्रह्मानन्द श्रेयानन्द है। मायिक प्रेयानन्द को भोगकर आत्मा में यह भाव जगृत हो जाता है कि मैं आनन्द में हूँ-यह आनन्द अज्ञानजन्य, क्षणिक और अनित्य है। प्रेयानन्द से पूर्ण वैराग्य हो जाने के बाद गुरुदया से ब्रह्मानन्द प्राप्त होता है। यही ब्रह्मानन्द श्रेयानन्द है। इन पंचकोशो से आत्मा का कर्म, गुण, स्वभाव पृथक है। यह आत्मा पंचकोषमय नहीं है-यह पंचकोष अज्ञान से अपने रूप को भूल जाने से प्रकट होता है। 
जय श्री सद्गुरुदेव भगवान की जय हो।