सामाजिक अपराधों ➖के लिए➖ हम भी परोक्ष रूप से जिम्मेदार |

वस्तुतः अपराधों का क्रम न्यायसंहिता की परिधि की पहुँच से बहुत पहले प्रारंभ  होता है । 

जिन कार्यों के लिए दंड संहिता में कोई व्यवस्था नहीं है, वे ही अपराधों के उद्गम केंद्र हैं । *”आलस्य-प्रमाद”, “असंयम”, “अशिष्टता”, “उद्धत आचरण”, “द्वेष-दुर्भाव”,  “कुदृष्टि-कुभाव”,  “कटु-भाषण” “अस्त-व्यस्तता”, “नशा-पानी”, “अस्वच्छता”, “अनुशासनहीनता” जैसी अवांछनीयताएँ सरकारी अंकुश से भले ही मुक्त हैं, पर वस्तुत: अपराधों की कारणभूत उत्तेजनाएँ इन्हीं से पनपती, फैलती हैं।

 ये ही अवांछनीयताएँ बढ़कर विध्वंसक अपराधों-विभीषिकाओं का रूप ले लेती हैं । नैतिक और नागरिक मर्यादाओं का निरंतर उल्लंघन तथा मानवीय संवेदनशीलता का नितांत अभाव ही अपराधियों का वास्तविक आधार और प्रेरणा केंद्र है क्योंकि ये ही आदमी को धीरे-धीरे खोखला, हीन और संकीर्ण बनाती है जिसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति अपराध करने और सहने के रूप में सामने आती है। जिन्हें स्तरहीनता,  परपीड़न और मर्यादाहीनता में कोई संकोच नहीं होता, वे  अनास्थावादी लोग ही अपराधी बनते, गुंडागर्दी अपनाते, आतंक उत्पन्न करते तथा चोरी-ठगी पर उतारू रहते हैं । यह अभ्यास उन्हें हत्या, बलात्कार जैसे नृशंस क्रूर कर्म में भी निर्लज्ज बनाए रहता है ।

अतः अपराधों की बाढ़ से बचने के लिए अनैतिकता के आरंभिक विकास पर दृष्टि डालनी चाहिए और उसे ही रोकने की व्यवस्था करनी चाहिए । भोग की निरंकुश भूख और मन की मनमानी उछल कूद को ही जिस समाज में स्वाभाविक मान लिया गया, वहाँ हिंसा, क्रूरता तथा अपराध अवश्यंभावी हैं । अतः आवश्यकता आस्थाओं के परिष्कार की, अंतःकरण के उत्सर्ग की है । 

अंतः करण को सुसंस्कारित बनाने, “अध्यात्म”  की प्राण प्रतिष्ठा का महत्व समझाने की है । कहने वाले कहते हैं कि “अध्यात्म”  से क्या होगा ? उससे धन तो नहीं मिल जाएगा । उन्हें स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि “अध्यात्म” से धन नहीं मानसिक वर्चस्, आत्मशांति आत्मसंतोष, वास्तविक आनंद मिलेगा, जो धन से भी अधिक महत्वपूर्ण है । साथ ही जो धन के संरक्षण सदुपयोग के लिए भी आवश्यक है । अराजकता-असामाजिकता की चपेट से धन भी नहीं बच  पाता । सुख शांति तो उस स्थिति में कभी मिलती ही नहीं 

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