“सभ्यता” और “शिष्टाचार” का पारस्परिक संबंध काफी घनिष्ट है। इतना कि एक के बिना दूसरे को प्राप्त कर सकने का ख्याल निरर्थक है। जो “सभ्य” होगा, वह अवश्य ही “शिष्ट” होगा और “शिष्टाचार” का पालन करता है, उसे सब कोई “सभ्य” बतलाएंगे। ऐसा व्यक्ति सदैव ऐसी बातों से बचकर रहता है, जिससे किसी को कष्ट पहुँचे या किसी प्रकार के अपमान का बोध हो। व्यक्ति अपने विचारों को नम्रतापूर्वक प्रकट करते हैं और दूसरों के कथन को भी आदर के साथ सुनते हैं। ऐसा व्यक्ति आत्मप्रशंसा के दुर्गुण से दूर रहता है। वह अच्छी तरह जानता है कि अपने मुंह अपनी तारीफ करना ओछे व्यक्तियों का लक्षण है। सभ्य व्यक्ति को तो अपना व्यवहार और बोलचाल ही ऐसा रखना चाहिए कि उसके संपर्क में आने वाले स्वयं उसकी प्रशंसा करें। प्रशंसा सुनने की लालसा व्यक्तित्व निर्माण में घातक है। “शिष्टाचार” में ऐसी शक्ति है कि मनुष्य किसी को बिना कुछ दिए-लिए अपनों और परायों का श्रद्धाभाजन और आदर का पात्र बन जाता है, पर जिसमें शिष्टाचार का अभाव है, जो चाहे जिसके साथ अशिष्टता का व्यवहार कर बैठते हैं, ऐसे लोगों के घर के आदमी भी उनके अनुकूल नहीं होते ।
हमारे आचरण और रहन-सहन में और भी ऐसी अनेक छोटी-बड़ी खराब आदतें शामिल हो गई हैं, जो अभ्यासवश हमको बुरी नहीं जान पड़ती, पर एक बाहरी आदमी को वे असभ्यता ही जान पड़ेंगी। उदाहरण के लिए किसी से कोई चीज उधार लेकर लौटाने का पूरा ध्यान न रखना, माँगी चीजों को लापरवाही से रखना और खराब करके वापस करना, बाजार से उधार वस्तु खरीदकर दाम चुकाने का है ध्यान न रखना, किसी व्यक्ति को वायदा करके घर बुलाना और स्वयं बाहर चले जाना, पत्रों का समय पर जवाब न देना, अपने कार्यालय में हमेशा देर करके जाना। इस प्रकार की सैकड़ों बातें हैं, जिनमें मनुष्य की प्रतिष्ठा में अंतर पड़ता है और वह दूसरों की आँखों में हलके दरजे का प्रतीत होने लगता है।
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