संस्मरण-आदर्श शिष्या सुगरी देवी कौन थी ? जिनका नाम विहंगम योग इतिहास में अंकित है। अवश्य पढ़ें

परमाराध्य महर्षि सदाफल देव जी महाराज की आदर्श शिष्या सुगरी देवी थी। उसका बचपन का नाम चमेली था।
उसकी शादी ‘गया’ में एक ऐसे परिवार में हुआ था, जो धर्म मे विशेष अभिरुचि नहीं रखते थे। सन 1947 में जब स्वामी जी का पदार्पण ‘मानपुर गया’ में हुआ था, तब वह भी उनके दर्शनार्थ गई। धार्मिक स्वभाव का होने के कारण परिवार में उसकी उपेक्षा हो रही थी ! जब वह स्वामी जी से जाकर उपदेश ले ली तो ससुराल वाले और अधिक नराज हो गये। चमेली देवी का मैका भी मानपुर में ही था और ससुराल भी यही था। पिता का नाम ठाकुर राम और माता का नाम तपेश्वरी देवी था। ससुर श्री नन्दलाल प्रसाद और पति श्री केदार प्रसाद उर्फ बबुआ थे। ससुराल वाले जितना अधिक नराज होते थे, उतना ही अधिक चमेली देवी के मन मे सद्गुरु-ज्ञान के प्रति अनुराग बढ़ता जा रहा था। वह पूर्व संस्कारी आत्मा थी इसलिए अपने सद्गुरु देव में उसकी श्रद्धा निरन्तर बढ़ती जा रही थी। कुछ दिनों तक तो ससुराल वाले उसे सद्गुरु-ज्ञान को छोड़ने के लिए कहते रहे और मानपुर स्थित मधुमति आश्रम पर जाने के लिए मना करते रहे। जब वह इस ज्ञान को किसी भी हालत में छोड़ने के लिए राजी नहीं हुई तो ससुराल वाले अत्यधिक नराज हो गये। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि एक दिन वे लोग उसे अपने घर से ही निकाल दिये। वह विरहिणी मधुमति आश्रम पर आ गई। स्वामी जी ने उसे मधुमति आश्रम की सेवा में लगा दिया ! जब कभी स्वामी जी मधुमति आश्रम पर आते थे तो उनका भोजन यही बनाया करती थी। इसके साथ ही स्वामी जी उसे प्रेस में भी कुछ-कुछ काम करने का आदेश दिया। वह बिल्कुल पढ़ी-लिखी नहीं थी। वह प्रेस में कम्पोज करना भी सिख गयी ! एक दिन उसने स्वामी जी से पूछा- प्रभो! हम जैसे असहाय लोगों को आप कब तक शरण देते रहेंगे ? इस पर स्वामी जी ने कहा कि- सद्गुरु तो अपने शरण मे आये हजारों-लाखों शिष्यों का भी जीवन-निर्वाह कर सकता है। एक क्या, हजारों महिला और पुरूष भी असहाय होकर सद्गुरु-शरण में आयेंगे तो उनका निर्वहन आश्रम करेगा ! इस तरह स्वामी जी के वचनों से आश्वस्त होकर वह मधुमति आश्रम की सेवा के साथ प्रेस में भी अपना योगदान देने लगी ! मधुमति आश्रम पर प्रेस की स्थापना जनवरी 1950 में की गई थी। उस समय प्रथम परम्परा सद्गुरु अचार्यश्री धर्मचन्द्र देव जी महाराज ही प्रेस की व्यवस्था देखते थे।
                                     
उसी समय की एक घटना है।
             
स्वामी जी गुजरात-प्रचार के दौरे में गये थे। इधर सुगरी देवी अचानक बहुत आश्वस्थ रहने लगा ! उसका सारा शरीर पिला हो गया। वह ढाँचा मात्र रह गई थी। इसी बीच स्वामी जी गुजरात दौरे के बाद ‘गया’ मधुमति आश्रम पर आये थे। उसकी दशा देखकर स्वामी जी ने कहा कि तुरन्त एक बर्तन लाओ और मेरा पैर प्रक्षालन करो। इसके  बाद उन्होंने कहा कि इस चरणामृत को पी जाओ ! चरणामृत पीने के बाद उसके स्वास्थ्य में तेजी से सुधार होने लगा और वह कुछ ही दिनों में पूर्णरूपेण स्वस्थ हो गई। जब वह स्वामी जी के चरणामृत का पान कर रही थी तो स्वामी जी ने कहा कि अब तुम्हारा नाम ‘सुगरी’ हो गया। तभी से वह चमेली देवी अब सन्त- समाज मे सुगरी के नाम से पुकारे जाने लगी।
     
स्वामी जी ने उसका नाम ‘सुगरी’  क्यों  रखा ? इसके पीछे भी सन्त-मत का एक इतिहास है।
                                                 
सद्गुरु कबीर साहब की एक प्रधान शिष्या का नाम ‘सुगरी देवी’ था । उस समय देश में सिकन्दर लोदी का अत्याचार चरम सीमा पर था। उसने सुगरी देवी को भी अपने अत्याचार का शिकार बनाना चाहा। मगर वह ध्यान-मग्न होकर अपने आराध्य सद्गुरु कबीर साहेब का स्मरण करने लगी। इतने में एक चमत्कार हुआ। साहेब की कृपा से उस सुगरी के अनेक रूप सिकन्दर लोदी को दिखने लगी। वह इस घटना से हड़बड़ा गया। तभी साहेब स्वयं प्रकट हो गये और सिकन्दर लोदी को खूब डाँट दी और भविष्य में इस तरह का अत्याचार करने से मना किया। सद्गुरु साहेब की उस अनन्यशरण शिष्या ‘सुगरी’ के नाम पर ही स्वामी जी ने चमेली देवी का नया नाम ‘सुगरी देवी’ रख दिया।
स्वामी जी के प्रयाग-प्रवास में 1954 के महाकुम्भ के अवसर पर वह उनका दर्शन प्राप्त की थी। वहाँ से आने पर जब स्वामी जी के देहत्याग का दुःखद समाचार मिला तो वह शोकाकुल हो उठी। वह फिर मधुमति आश्रम से झूँसी आई और स्वामी जी की समाधि पर पुष्पार्पण करके अपनी भाव-भीनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
अब सद्गुरु देव पद पर प्रथमाचार्य जी आसीन थे। सुगरी देवी अभी भी मधुमति आश्रम पर ही रहती थी। प्रथमाचार्य जी ने इसके ससुराल वालों को काफी समझाया और सुगरी देवी के ज्ञान-प्रेम के बारे में बतलाया। इस बार इसके ससुराल वाले सहमत हो गये और सुगरी देवी उनके यहाँ चली आयी। यहाँ आने पर भी उसकी साधना और सद्गुरु-भक्ति उसी प्रकार पूर्ववत बनी रही। मधुमति आश्रम जब स्थानांतरित होकर वर्तमान स्थान पर आ गया, उस समय भी वह आश्रम की सेवा मनोयोगपूर्वक करती रही। द्वितीय परम्परा सद्गुरु आचार्य श्री स्वतंत्र देव जी महाराज के सद्गुरु-पद पर प्रतिष्ठित होने के बाद वह आश्रम -सेवा से निरन्तर जुड़ी रही! सद्गुरु देव का आजीवन कृपा-पात्र बनकर वह प्रचार-प्रसार की सेवा भी करती रही।
*स्वामी जी अनन्य शरण शिष्या सुगरी देवी का जन्म मानपुर(गया) में ही सन 1923 के आस-पास हुआ था और मात्र 24-25 वर्ष की अवस्था मे वह विहंगम योग के ज्ञान से जुड़ गई थी। इस तरह एक आदर्श शिष्या के रूप में करीब 65 वर्षो की सेवा करते हुए वह 31/10/2013 को पंच तत्व में विलीन हो गई। एक निरक्षर महिला होते हुए भी सद्गुरु-कृपा से उसमें ज्ञान-प्रभा उतर आई थी और वह सन्त-समाज की एक आदर्श-शिष्या के रूप में जानी जाती रही। सद्गुरु की उस आदर्श शिष्या की स्मृति में सादर नमन है। इस पोस्ट से सभी गुरु-बहनों को प्रेरणा लेनी चाहिए कि हम भी अपने कर्तव्य से सुगरी देवी जैसा पद प्रतिष्ठा प्राप्त करें। ज्ञात हो कि विहंगम योग में नर-नारी सभी को एक समान भक्ति करने का पूर्ण अधिकार है। जय श्री सद्गुरु देव भगवान
स्रोत – ‘अध्यात्म-शिखर सद्गुरु आचार्य स्वतंत्र देव जीवन-दर्पण’ (पुस्तक)

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