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संजीवनी ज्ञानामृत/प्रसन्न” रहना ईश्वर की कृपा।

प्रसन्नता” संसार का सबसे बड़ा सुख है। जो प्रसन्न है, वह सुखी है और जो सुखी है, वह अवश्य प्रसन्न रहेगा। जिसके जीवन से प्रसन्नता चली गई, हर्ष उठ गया, वह जीने को जीता तो है ही, किंतु निर्जीवों जैसा। 
जीवन में क्या आनंद है, उसमें कितनी सुख-शांति है, यदि इसका अनुभव न किया जा सका तो जिंदगी को एक शव की भाँति ढोना ही समझना चाहिए। जिंदगी जीने के लिए मिली है, भार ढोने के लिए नहीं ।
जो बाहर से गरीब है, अभावग्रस्त है यदि वह आनंद से अनुद्विग्न है तो वह सुखी ही रहेगा। कोई भी असुविधा उसे दुखी नहीं कर सकती। जीवन में कुछ भी न होने पर भी यदि किसी के पास मन की मौज और हृदय का हर्ष है तो यह संसार का सबसे संपन्न मनुष्य है।
आंतरिक प्रसन्नता के लिए किन्हीं बाह्य साधनों की आवश्यकता नहीं। बाह्य साधन किसी की शारीरिक आवश्यकताएँ पूरी कर सकते हैं, मन की मस्ती नहीं दे सकते। बड़े-बड़े राजे-महाराजे, सेठ- साहूकार, अफसर और ओहदेदार सुख-सुविधाओं के प्रचुर साधन होते हुए भी बुरी तरह से दु:खी और क्लांत रहा करते हैं। इसके विपरीत गरीब और साधनहीन व्यक्ति बहुत कुछ सुखी और संतुष्ट देखे जाते हैं।
प्रसन्न मन व्यक्ति एक टूटी-फूटी झोंपड़ी में भी सुखी रह सकता है और चिंतित तथा उद्विग्नचित्त मनुष्य राजमहल में भी दु:खी और असंतुष्ट रहा करता है। जो मन से प्रसन्न है वही सुखी है, शांत है और संपन्न है। जिसका हृदय प्रसन्न नहीं वह दु:खी है, दरिद्र है और विपन्न है। जीवन के यथार्थ सुख के लिए मानसिक प्रसन्नता बहुत आवश्यक है। इसके अभाव का दूसरा नाम दुःख है। सुखी होना है तो प्रसन्न रहिए, निश्चिंत रहिए, मस्त रहिए।
प्रसन्न मन ही आत्मा को देख सकता है, परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है और जीवन के समस्त श्रेयों को पा सकता है। अस्तु,  जीवन को हर प्रकार से सफल बनाने के लिए प्रसन्न रहना बहुत आवश्यक होता है। “हर कीमत पर अपने हर्ष को बढ़ाइए, प्रसन्नता की रक्षा कीजिए।
प्रसन्न रहने के लिए किसी बहुत बड़े सरंजाम की आवश्यकता नहीं। बहुत अधिक साधन इकट्ठे करने का अर्थ है-दुःख को निमंत्रित करना। जो प्रसन्नता और सुख-शांति के लिए छल-कपट और छीना- झपटी करके जमीन-जायदाद और धन-दौलत इकट्ठा करते हैं, वह भूल करते हैं। बाह्य साधन आज तक न किसी को शांति दे सके हैं और न कभी दे सकेंगे।
मानसिक प्रसन्नता के लिए मनुष्य को अधिक से अधिक मुक्त रहना चाहिए। उसे अपने चारों ओर जटिलताओं का जाल नहीं रच लेना चाहिए। लोभ, मोह आदि को अधिक बढ़ा लेना ही अपने चारों ओर जटिलता का जाल बिछा लेना है।