यदि “श्रम” का सत्परिणाम सुनिश्चित न होता तो कोई क्यों श्रमशीलता का कष्टसाध्य मार्ग अपनाता ? कृषि, व्यापार, शिल्प, शिक्षा आदि में करोड़ों आदमी निरंतर पूर्ण तत्परता के साथ लगे रहते हैं और प्रतिफल भी उनको मिलता ही है। किसान खेत से ही तो गुजारा करते हैं, कारखानों को लाभ होता ही है।
विद्या प्राप्त करने पर अच्छी जीविका मिलती ही है। यदि ऐसा न होता तो लोग अनिश्चितता अनुभव करते और किसी भी कार्यपद्धति पर लोगों का मन न जमता, पर ऐसा है नहीं। यह सारा संसार एक नियत विधि व्यवस्था पर चल रहा है । पुरुषार्थ को विजयलक्ष्मी वरण करती है और अकर्मण्य के पल्ले दीनता, दरिद्रता बंधी रहती है। इस विधान पर विश्वास करके प्रत्येक व्यक्ति कार्य-संलग्न हो रहा है और कष्टसाध्य लगते हुए भी प्रयत्न में संलग्न रहता है।
इतना होते हुए भी अपवादों की कमी नहीं रहती, “पुरुषार्थियों” को असफलता और “आलसियों” को आकस्मिक लाभ की घटनाएँ भी घटित होती रहती हैं। यद्यपि ऐसा कम और कभी-कभी ही होता है पर होता अवश्य है। संख्या में थोड़ी रहने के कारण इन्हें अपवाद कहा जाता है। यह अपवाद भी कई बार मनुष्य के मन को विचलित और क्षुब्ध कर दिया करते हैं। जिन्हें ऐसी ही उल्टी परिस्थितियों से पाला पड़ा है, वे पुरुषार्थ की व्यर्थता और भाग्य के सर्वोपरि होने की बात सोचने लगते हैं। कई बार तो ऐसे लोग हतोत्साह और निराश होकर ऐसा भी सोचने लगते हैं कि “अपने बलबूते कुछ बनने वाला नहीं है जो कुछ होना होगा, जब दिन फिरेंगे तभी कुछ लाभ होगा। हमारा हाथ-पैर पीटना है। तकदीर के आगे बेचारी तदबीर क्या कर सकती है ?
ऐसा सोचना न तो उचित है और न आवश्यक। “भाग्य” भी “पुरुषार्थ” का ही साथ देता है। अकर्मण्य लोग आकस्मिक सुयोग किसी प्रकार प्राप्त भी कर लें तो देर तक उनका लाभ नहीं उठा सकते। क्षमता पर ही स्थिरता अवलंबित है। अयोग्य व्यक्ति जब कार्य क्षेत्र में उतरते हैं तो खोटे सिक्के की तरह अलग फेंक दिए जाते हैं। आकस्मिक सौभाग्य किसी अयोग्य को तो मिल सकता है, पर वह देर तक उसके पास टिका नहीं रह सकता। जिसने श्रम करके जो कमाया है, वही उसका सदुपयोग भी कर सकता है।
‘माल मुफ्त दिले बेरहम’ वाली कहावत के अनुसार अनायास प्राप्त हुई सफलता देर तक नहीं ठहरती वे किसी न किसी मार्ग से जल्दी ही विदा हो जाती हैं। अपव्यय की आदत उन्हें ही पड़ती है, जिन्हें बिना मेहनत की कमाई हाथ लगी है। फिजूलखर्ची और असावधानी बरतने से तो समुद्र का जल भी समाप्त हो सकता है। फिर छोटी-सी सफलताओं का टिके रहना तो संभव ही कैसे हो सकता है ?