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ज्ञान की बात

मोहग्रस्त नहीं, विवेकवान बनें / फाल्गुन कृष्णपक्ष द्वादशी-2080

मानस संजीवनी ज्ञानपीठ (सनातन वैदिक शिक्षा एवं शोध संस्थान) परिवार के प्रति हमें सच्चे अर्थों में कर्त्तव्यपरायण और उत्तरदायित्व निर्वाह करने वाला होना चाहिए। आज मोह के तमसाच्छन्न वातावरण में जहाँ बड़े लोग छोटों के लिए दौलत छोड़ने की हविस में और उन्हीं की गुलामी करने में मरते-खपते  रहते है, वहाँ घर वाले भी इस शहद की मक्खी को हाथ से नहीं निकलने देना चाहते, जिसकी कमाई पर दूसरे ही गुलछर्रे उडाते हैं।

 आज के स्त्री-बच्चे यह बिलकुल पसंद नहीं करते कि उनका पति या पिता उन्हें लाभ देने के अतिरिक्त लोकमंगल जैसे कार्यों में कुछ समय या धन खरच करे। इस दिशा में कुछ करने पर घर का विरोध सहना पड़ता है। उन्हें आशंका रहती है कि कहीं इस ओर दिलचस्पी लेने लगे तो अपने लिए जो मिलता था, उसका प्रवाह दूसरी ओर मुड़ जाएगा। ऐसी दशा में स्वार्थ-संकीर्णता के वातावरण में पले उन लोगों का   विरोध उनकी दृष्टि में उचित भी है, पर उच्च आदर्शों की पूर्ति उनके अनुगमन से संभव ही नहीं रहती ।

यह सोचना क्लिष्ट कल्पना है कि घर वालों को सहमत करने के बाद परमार्थ के लिए कदम उठाएँगे। यह पूरा जीवन समाप्त हो जाने पर भी संभव नहीं होगा। जिन्हें वस्तुतः कुछ करना हो उन्हें अज्ञानग्रस्त समाज के विरोध की चिंता न करने की तरह “परिवार के अनुचित प्रतिबंधों को भी उपेक्षा के गर्त में ही डालना पड़ेगा।” घर वाले जो कहें, जो चाहें वही किया जाए, यह आवश्यक नहीं। हमें “मोहग्रस्त” नहीं “विवेकवान” होना चाहिए और पारिवारिक कर्त्तव्यों की उचित मर्यादा का पालन करते हुए उन लोभ एवं मोह भरे अनुबंधों की उपेक्षा ही करनी चाहिए जो हमारी क्षमता को लोकमंगल में न लगने देकर कुटुंबियों की ही सुख-सुविधा में नियोजित किए रहना चाहते हैं। 

इस प्रकार का पारिवारिक विरोध आरंभ में हर महामानव और श्रेयपथ के पथिक को सहना पड़ा है। “अनुकूलता पीछे आ गई यह बात दूसरी है,” पर आरंभ में श्रेयार्थी को परिवार के इशारे पर गतिविधियाँ निर्धारित करने की अपेक्षा “आत्मा की पुकार को ही प्रधानता देने का निर्णय करना पड़ा है।