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मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष प्रतिपदा”संजीवनी ज्ञानामृत”शिष्टाचार” की पाठशाला – “परिवार”

“शिष्टाचार” का मूल मंत्र है-“अपनी नम्रता और दूसरों का सम्मान” इस कसौटी पर जो जितना खरा उतरता है उसे उतना ही सभ्य-सुसंस्कृत समझा जायेगा।

जो अपना अहंकार जताते हैं और दूसरों का अपमान करते हैं वे असभ्य गिने जाते हैं। आवश्यक नहीं कि ऐसा घटिया प्रदर्शन मारपीट से, गाली-गलौच से ही किया जाय – ऐसी दुर्गन्ध साधारण वार्तालाप में भी भरी हो सकती है ।

 कई व्यक्ति अपनी शेखी बघारते रहने के आदी होते हैं। उनका यह करना तो अत्युत्साह की तरंग में करना होता है, पर प्रकारान्तर से यह भाव रहता है कि अपने बड़प्पन की इतनी बढ़ी चढ़ी छाप छोड़ें, जिसकी तुलना में सुनने वाले अपने को पिछडा हुआ अनुभव करने लगें। यह अप्रत्यक्ष अहमन्यता है जो सुनने वालों को अखरती है जिससे उसकी धाक स्वीकार करने की अपेक्षा उसे मन ही मन शेखीखोर मानने लगते हैं और उसके कथन पर अविश्वास करने लगते हैं।
परिवार में “शिष्टता” का वातावरण प्रचलित रहना चाहिए। सभी एक दूसरे को सम्मान दें। उचित मर्यादा में प्रशंसा करें और प्रोत्साहन भी दें । दिल  तोड़ने वाली, निराश करने वाली बात न कहें। सम्मान से सद्भाव बढ़ता है,  शिष्टता बरतने वाला सम्मानित होता है और अनायास ही दूसरों का सद्भाव, सहयोग अर्जित करता है, साथ ही अपने विश्वस्त व्यक्तित्व की दर्शकों पर भी छाप छोड़ता है। यह प्रत्यक्ष ही लाभ का सौदा है, इस व्यवसाय में भी प्रवीण-पारंगत होने का हर किसी को प्रयत्न करना चाहिए, साथ ही यह भी गाँठ बाँधकर रखना चाहिए कि अशिष्टता हर दृष्टि से हानिकारक है। यह अपना स्तर गिराती है, मित्रों को शत्रु बनाती है। जो सहयोगी था, उन्हें असहयोग करने के लिए प्रेरित करती है। इसकी हानि भले ही तत्काल किसी की समझ में न आये, पर परिणाम  सामने आने पर विदित होता है कि एक ऐसी कुटैव पाल ली गई जो पग-पग अनर्थ खड़े करती है। घर के विचारशील तथा प्रमुख व्यक्ति ही शिष्टता का  विकास कर सकते हैं। सर्वप्रथम उनके द्वारा ही इसका पालन किया जाना चाहिए ।  अभिवादन करते समय, बात करते समय हम वाणी में शालीनता लायें, मधुर और  नम्रतापूर्ण वाणी का प्रयोग करें। यदि हमारी बोली में कठोरता, तू-तड़ाक और ताने बाजी की आदत है, तो उसे धीरे-धीरे हटाने बदलने का प्रयास करना चाहिए कहा है-
“ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥
बहुधा बोलने में निरर्थक शब्द बोलने का स्वभाव पड़ जाता है, किन्तु वह सभ्य-समाज में बोलते ही शर्म से आँखें नीची करनी पड़ती हैं। अतः उनका उपयोग छोड़ने का अभ्यास करना चाहिए। हम कुछ भी आय-बॉय जो मुँह में आ जाय सो न बोलें, हम क्या बोल  रहे हैं उसका पहले से विचार कर लेना चाहिए। इसीलिए कहा है कि “जो कुछ बोलें, उसको तोलें” अर्थात संतुलित बोलने का प्रयत्न किया जाय। ‘तू’ शब्द से किसी को सम्बोधित न करना चाहिए। ‘तू’ शब्द से सम्बोधन किसी को भी सम्मानित जैसा नहीं लगता । अतः ‘आप’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए ।