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मनुष्य शरीर भाग्य से मिला है

बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥

बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,॥ हमारा मानव जीवन भगवान् की सबसे बडी सौगात है, यह मनुष्य का जन्म हमारे लिये भगवान् का सबसे बडा उपहार है, जीवन बेशकीमती है, जीवन को छोटे उद्देश्यो के लिए जीना जीवन का अपमान है, अपनी शक्तियों को तुच्छ कामों मे व्यर्थ करना, व्यसनों एव वासनाओं में जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद करना, जीवन का तिरस्कार है।

हमारा जीवन अनन्त है, हमारी शक्तियाँ भी अनन्त है, हमारी प्रतिभायें भी विराट है, हम अपनी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक व आध्यात्मिक शक्तियों का लगभग कुछ प्रतिशत ही उपयोग कर पाते है, हमारी अधिकांश शक्तियाँ सुप्त ही रह जाती है, यदि हम अपनी आंतरिक क्षमताओं का उपयोग करे तो हम पुरुष से महापुरुष, मानव से महामानव बन जाते है।

हमारी मानवीय चेतना मे वैश्विक चेतना अवतरित होने लगती है, दुनिया भ्रमवश इन्सान को भगवान की तरह पूजने लगती है, योगेश्वर श्रीकृष्ण, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामजी, महायोगी भगवान् शिवजी, भगवत्ता को प्राप्त महावीर स्वामी, समर्पण से सम्बोधि को प्राप्त हुये महर्षि दयानन्दजी, स्वामी विवेकानन्दजी मे जो अलौकिक शक्तियाँ या सिद्धियां थीं, वे समस्त शक्तियाँ हमारे भीतर सन्निहित है।

मानव स्वयं अपने को दीन-हीन दु:खी, असहाय या अकेला नहीं मानना चाहियें, प्रतिफल “अहं ब्रहमास्मि” मै विराट हूँ, मैं परमात्मा का प्रतिनिधि हूँ, इस पृथ्वी पर मेरा जन्म एक महा्न् उद्देश्य को लेकर हुआ है, मुझमें धरती जैसा धैर्य, अग्नि जैसा तेज, वायु जैसा वेग, जल जैसी शीतलता व आकाश जैसी विराटता है, मेरे मस्तिष्क मे ब्रहमाण्ड सा ब्रह्म तेज, मेधा, प्रज्ञा व विवेक है।

मेरे मस्तिष्क में ब्राह्मण जैसी बुद्धि, भुजाओ मे क्षत्रिय जैसा शौर्य, पराक्रम व स्वाभिमान है, मेरे उदर मे वैश्य जैसा व्यापार व कुशल प्रबन्ध व शूद्रवत सेवा करने को मै अपना सौभाग्य समझता हूँ, मैं एक व्यक्ति नही, मैं एक संस्कृति हूँ, मैं एक वंश परम्परा व एक शाश्वत संस्कृति का संवाहक हूँ, मुझसे भारत है, मैं भारत से हूँ, मैं माँ भारती का पुत्र हूँ।

“माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:” मैं भूमि, भवन, पदसत्ता युक्त देह नहीं, मैं अजर, अमर, नित्य, अविनाशी, ज्योतिर्मय व तेजोमय आत्मा हूँ, ईश्वर का दिया हुआ अनमोल तन हम्हारे पास है तब दरिद्रता कैसी? परिश्रम से धन अर्जित करो एवम् अपने कर्तव्यों का निर्वाह करो, यही जीवन है, ईश्वर का दिया मानव जन्म अमूल्य है, इसे व्यर्थ न गंवायें।

जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥

भावार्थ:-जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है॥

꧁जय श्री राधे꧂