माया का विस्तार स्थूल जगत् में तो है ही, परन्तु सूक्ष्म, झीनी माया सब घट में समाकर आत्मस्वरूप को ढाँपी हुई है । सबसे मोटी माया स्त्री, पुत्र, धन की है ।
मान, प्रतिष्ठा, कलह, ईर्ष्या उससे भी सूक्ष्म माया है, जिससे छुटकारा पाना अत्यन्त असम्भव हो जाता है । माया से छूटने के लिए प्रभु-भक्ति, योगाभ्यास के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है । जल, आहार त्यागकर एकान्त में बैठने से माया नहीं छूट सकती, न घर-परिवार छोड़कर बाहर-बाहर घूमने से ही मोह, विषय, ममत्व-बन्धन से हम छूट सकते हैं । माया हमारे मन में है । माया का सम्बन्ध चित्त, अहंकार और बुद्धि से है । बाहरी माया को छोड़ देने से ही हम विरक्त और मायारहित नहीं हो सकते । कनक-कामिनी मोटी माया है । झीनी माया वह है, जिससे सन्सार की सारी आसक्ति, मोह, मत्सर और सन्सार के विषय-भोग की इच्छा अनेक जन्मों के कर्म-भोग-संस्कारस्वरूप चित्त में लगी हुई है । उसी माया को छोड़ने के लिए नाना प्रकार के प्रयत्न, सदुपाय, कर्म, उपासना शास्त्र या सत्पुरुषों ने बतलाये हैं, परन्तु माया मुझसे छूटती नहीं । जब तक माया मुझसे छूट नहीं जाती तब तक मैं वास्तविक सुख की प्राप्ति या परब्रह्म की उपासना नहीं कर सकता ।
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