बाहर की सृष्टि कैसी,हमारी दृष्टि जैसी”/माघ कृष्णपक्ष प्रतिपदा 2080

संजीवनी ज्ञानामृत| भलाई, उत्कृष्टता, स्वच्छता आदि सब ईश्वर प्रकृति, नैतिक विधान की धरती पर मिलती हैं; वे अनादि हैं, स्थिर हैं, अनंत हैं। सृष्टि की रचना में कहीं भी गंदगी बुराई, अपवित्रता नहीं है। संसार के तत्त्व चितकों, दर्शनिकों हमारे ऋषियों ने यह सब अनुभव किया और कहा- “मगलमय भगवान की मंगलमय कृति यह सृष्टि है” फिर भला दूषित अपवित्र तत्त्व कहाँ से आए ?

हम अपने भीतरी दृष्टिकोण को बदलें तो बाहर जो कुछ भी दिखाई पड़ता है वह सब कुछ बदला-बदला दिखाई देगा। आँखों पर जिस रंग का चश्मा पहना होता है बाहर की वस्तुएँ उसी रंग की दिखाई पड़ती हैं। अनेक लोगों को इस संसार में केवल पाप और दुर्भाव हो दिखाई पड़ता है। सर्वत्र उन्हें गंदगी ही दीख पड़ती है। इसका प्रधान कारण अपनी आंतरिक मलिनता ही है। इस संसार में अच्छाइयों की कमी नहीं श्रेष्ठ और सज्जन व्यक्ति भी सर्वत्र भरे पड़े हैं। फिर हर व्यक्ति में कुछ न कुछ अच्छाई तो होती है। छिद्रान्वेषण छोड़कर यदि हम गुण अन्वेषण करने का अपना स्वभाव बना लें तो घृणा और द्वेष के स्थान पर हमें प्रसन्नता प्राप्त करने लायक भी बहुत कुछ इस संसार में मिल जाएगा। बुराइयों के सुधारने के लिए भी हम घृणा का नहीं, सुधार और सेवा का दृष्टिकोण अपनाएँ तो वह कटुता और दुर्भावना उत्पन्न न होगी जो संघर्ष और विरोध के समय आमतौर से हुआ करती है।

दूसरों को सुधारने से पहले हमें अपने सुधार की बात सोचनी चाहिए। दूसरों से सज्जनता की आशा करने से पूर्व हमें अपने आप को सज्जन बनाना चाहिए। दूसरों की दुर्बलताओं के प्रति एक दम आगबबूला हो उठने से पहले हमें यह भी देखना उचित है कि अपने भीतर कितने दोष-दुर्गुण भरे पड़े हैं। बुराइयों को दूर करना एक प्रशंसनीय प्रवृत्ति है। अच्छे काम का प्रयोग अपने से ही आरंभ करना चाहिए। हम सुधरें, हमारा दृष्टिकोण सुधरे तो दूसरों का सुधार होना कुछ भी कठिन न रह जाएगा ।

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