शिव-पार्वती की अद्भुत प्रेम कहानी
(महाशिवरात्रि विशेष )
आज के युग में जहाँ प्रेम, प्रीत के मायने बदल गए है। जहाँ प्यार का स्थान अर्थ, भोग, विलास ने ले लिया है वहाँ शिव-शिवा का निश्चछल, निस्वार्थ, अडिग प्रेम सभी के लिए प्रेरणादायी है। तभी तो आज भी भक्तगण सदियों-सदियों बाद भी इस सम्पूर्ण हुए प्रेम के दिवस को महाशिवरात्रि के रूप में विशेष उल्लास, उमंग, ऊर्जा से मंदिर-मंदिर, घर, पंडालों में पूजन-व्रत करते हुए रात्रिजागरण के साथ मनाते है। साथ ही महादेव और महादेवी से इसी तरह के पूर्ण प्रेम को पाने की कामना करते हुए, जीवन में सम्पूर्णता और सकल सुख पाने की भी इच्छा करते हैं।
एक संपूर्ण प्रेम कहानी शिव और शिवा की
प्रेम शब्द में ढाई अक्षर होते हैं। जो दो पूर्ण और एक अधूरे शब्द से बना है। कहा जाता है कि प्रेम शब्द ही अपूर्ण है इसलिए हर किसी को यह पूर्णरूप से नहीं मिलता। परन्तु शिव जी और पार्वती जी की प्रेम कहानी अनेक कष्टों के पश्चात ही सही पर पूर्णता प्राप्त प्रेम का प्रमाण है। चाहे इस प्रेम को सम्पूर्ण होने में युग-युगांतर लगे हो। इस प्रीत में पार्वती जी का कठोर तप तो शिव जी की सदियों की प्रतीक्षा समाहित है। इन दोनों जितने अद्भुत जीवनसाथी आज तक कोई नहीं हुए।
तीनों लोको के स्वामी होकर भी शिव जी के पास ना स्वयं की धरा, ना ही स्वयं का आकाश रहा। बस प्रकृति की गोद में बसा कैलाश पर्वत ही उनका निवास स्थान हुआ। और दूसरी ओर पार्वती जी हर जन्म में राजकुमारी या बडे़ घर की कन्या हुई। फिर भी उन्होंने अपने जीवन में शिव जी से अधिक किसी की भी चाह, कभी नहीं की। शिव जी सकल सृष्टि के स्वामी परन्तु अज्ञानियों की दृष्टि में एक अघोरी से ज्यादा कुछ नहीं पर उस दिव्य स्वरूपा देवी ने शिव जी को जो पूर्णता दी उससे वे देवों के देव महादेव बन गए।
पुराणों में वर्णित है कि पार्वती जी ने शिव जी की अर्धांगिनी बनने के लिए एक सौ आठ बार जन्म लिया। अंतिम, एक सौ आठवीं बार में वे पार्वती जी बनी। पार्वती जी के स्वरूप से पहले उनका जन्म दक्ष प्रजापति की कन्या के रूप में हुआ। तब उस जन्म में भी उन्होंने प्रेम से वशीभूत होकर शिव संग प्रेमविवाह किया। परन्तु उनके पिता प्रजापति की इच्छा रही थी कि सती, विष्णु जी को वरण करें। ताकि वे सब प्रकार के वैभवों से युक्त व प्रसन्न रहे। पर सती तैयार ना हुई बल्कि उन्होंने घोषणा कर दी कि मेरा वास्तविक सुख तो महादेव में निहित है। सती रूप में शिव जी की भक्ति की और दृढ़ता से उन्हें पति के रूप में पाया। इसी बात से दक्ष प्रजापति शिव जी के विरोधी बन गए और अपना सबसे बड़ा शत्रु अपने ही जमाता अर्थात् शिवजी को मान लिया।
शिव जी को तुच्छ दर्शाने के लिए दक्ष ने एक महायज्ञ का आयोजन किया जिसमें सभी देवी, देवता, यक्ष, किन्नर, साधु, संत, ऋषि-मुनियों को बुलाया गया। बस स्वयं की पुत्री और जमाता को छोड़कर। इस यज्ञ में जाने हेतु पार्वती जी ने शिव जी को समझाया कि आमंत्रित तो परायों को किया जाता है, अपनों को नहीं और वे वहाँ बिन बुलाए पहुँची तो उन्हें बहुत अपमानित होना पड़ा। उन्हें शिव जी की बात ना मानकर गलती हो जाने का भान हुआ और जब उन्होंने शिव जी के प्रति अपमानजनक शब्द सुने तो वे यज्ञ के अग्निकुण्ड में कूद गई। शिवजी को जब पता चला तो उनके गणों ने यज्ञ भंग कर दिया। सती ने पुनर्जन्म में पुनः शिव जी से मिलने का वचन देकर प्राण त्याग दिए।
शिवजी माता सती का मृत शरीर लिए विक्षिप्त से घुमते रहे। तब विष्णु जी ने सुदर्शन चक्र से इक्यावन भागों में सती का तन काट दिया। जो आज भी 51 शक्तिपीठ के रूप में स्थापित है।
वर्षोंवर्ष शिवजी का वियोग कम नहीं हुआ बल्कि बढ़ता ही गया। वे संसार से विरक्त हो गए। इधर सती ने वादा निभाते हुए पर्वतराज हिमवान और रानी मेना के घर पुत्री के रूप में पुनर्जन्म लिया। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण उन्हें पार्वती नाम मिला। नारद जी ने किशोरी पार्वती जी को जीवनसाथी के रूप में शिव जी को पाने के लिए तपस्या का मार्ग बता दिया। तब पार्वती जी ने अपनी सखी को हृदय की बात बताई तो उनकी सखी उन्हें घोर बियाबान जंगल में लेकर गई। जहाँ पार्वती जी ने अन्न-जल का परित्याग करके विभिन्न कठोर से कठोर तप सहस्त्रों वर्षो तक किए। तब शिवजी ने सप्तऋषियों को पार्वती जी को समझाने के लिए भी भेजा। स्वयं भी वटूवेश में समझाने पहुँचे थे। परन्तु शिव जी ने भी पार्वती जी दृढ़ संकल्प के आगे हार स्वीकार कर ली और वे पार्वती जी संग परिणय सूत्र में बंधने का वचन दे बैठे।
इस वचन को शिवजी ने फाल्गुन मास कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी अर्थात् शिवरात्रि पर पूर्ण किया। शिव और शिवा का महामिलन शिवरात्रि को हुआ इसलिए यह दिन महाशिवरात्रि बन गया। कितनी कठिनाइयों को सहन करते हुए महलों की राजकुमारी पार्वती जी, पर्वतवासिनी बन गई। पार्वती जी ने एक बार अपने लिए घर की इच्छा भी की तब शिव जी ने उन्हें लंका बनाकर भी दी थी। तब वास्तुविप्र रावण जो दक्षिणा में शिव जी को पाने की इच्छा से पूजन करने आया था, पार्वती जी ने सोने की लंका उसे ही भेंट कर दी परन्तु शिव जी को रावण के साथ जाने नहीं दिया। पार्वती जी ने किसी भी जन्म में भोले भंडारी के प्रेम के अतिरिक्त कोई धन, वैभव नहीं चाहा बल्कि जीवन की हर परिस्थिति में शिव जी का साथ सूर्य की किरणों, पुष्प में सुगंध तो शरीर संग प्राण बनकर निभाया।
वहीं शिव जी ने भी तो हर जन्म में पार्वती जी की प्रतीक्षा की। शिव जी, जो गले में मुण्डमाला पहनते है, वो पार्वती के हर एक जन्म का ही तो प्रतीक है। जिसे वे हृदय से लगाए रखते है। वास्तव में पार्वती जी अनेकों कठिनाईयाँ सहीं तो शिवजी ने भी अथाह वियोग सहा। जिसे सभी कुछ सरलता से प्राप्त हो जाए उनका जीवन कभी पूजनीय नहीं बनता। अंततः दोनों ने सम्पूर्ण प्रेम की परिभाषा गढ़ दी।
इस सम्पूर्ण युगल, जगत के माता-पिता का आशीर्वाद सभी के जीवन पर सदा बना रहे। सभी को महाशिवरात्रि पर्व की अनंत स्वस्तिकामनाएं।
“जय जय पार्वती पति, हर हर महादेव!”
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