प्रेम सूत्र है , जिसे बांधने के लिए भौतिक आधार कभी काम नहीं आते ,हां भौतिक साधन शारीरिक सुख तो प्रदान कर सकते हैं,,
पर इनसे प्रेम को जाना नहीं जा सकता। प्रेम को पाने के लिए आधुनिक समय की मानसिक चेतन अल्पता जिस चरम पर जा बैठी है उसकी व्याख्या करना एक दम व्यर्थ ही है।जिसे मानसिक व्यवभिचार बोलना कुछ गलत नहीं होगा। प्रेम को दुर्बलता का यथार्थ कारण तकनीकी , मार्डनाइजेशन , सोशल मीडिया, सोशल नेटवर्किंग, अपरिपक्व प्रेम व्यवहार , बल्गर हिंदी सिनेमा , मोबाइल्स , वेब सीरीज आदि जिनके संपर्क से मानवीय आपराधिक प्रवृति में 80 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है।
प्रेम आत्मिक विज्ञान का वह स्रोत है जिसे समझ पाना हर किसी के सामर्थ्य से बाहर की बात है। प्रेम जीवन को सुंदर आकार देकर उसे ब्रह्मांड की अनुपम छवि प्रदान करता है प्रेम के लिए हजारों ऐसे उपादान और उपमाएं हैं जिन्होंने प्रेम गौरवशाली स्वरूप प्रदान किया है प्रेम ही जिनके जीवन का आधार और उपासना थी । प्रेम के वास्तविक स्वरूप में जिन्होंने उस परम सत्ता के दर्शन किए । प्रेम को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता ये कहा जाता है, भाव ही उसकी वाणी है ।
किसी भी विषय , परिस्थिति को जानने समझने के लिए उस विषय एवम परिस्थिति में स्वयं को ढालना उतरना पड़ता है t
प्रेम पथ के सारथी
देखे सदैव निस्वार्थी
सूर तूर रहीम की भावांजलि में
राम बसे रैदास की जलांजलि में
प्रेम पदारथ मीरा पाई
प्रेम की निर्गुण वाणी कबीरा गाई
प्रेम पथ के अनुपम भावार्थी
जाना प्रेम को भए आत्म लाभार्थी
इस समूचे ब्रह्मांड में प्रेम गीत को जितना भी गाया जाए उतना कम ही है। ब्रह्मांड स्वयं प्रेमपूर्ण प्रेम से निर्मित उस रचनाकार का अस्तित्व है जिसे समझ पाना असहज ही है।
इस सृष्टि में तीन के अतिरिक्त कोई भी आपसे निस्वार्थ प्रेम नहीं कर सकता, प्रथम ईश्वर जिसने इस ब्रह्मांड की रचना की है उसका रचित कण कण रोम रोम अनुपम है , आप कैसे भी हैं फिर भी वह पिता की तरह आपसे प्रेम करता है। उसकी दृष्टि में किसी के भेद भाव नहीं है कोई छोटा या बड़ा नही है । वह यह भी नहीं देखता कि वह सुंदर है और वह कुरूप है ।वह अमीर है वह गरीब है । उसके लिए सभी समान और प्रेम रूप हैं । यह तो मात्र हमारे शुभ और अशुभ कर्मों का परिणाम है कि हम दुःख और सुख का अनुभव करते हैं। और उसका दोष या अपराधी ईश्वर व अन्यों का मानते हैं।
द्वितीय स्थान मां का है जो ममतायुक्त होकर अपनी सभी संतानों को एक दृष्टि से प्रेम करती है वह सौ पूतों को एक के समान ही प्रेम करती है।यूं तो मां का स्थान सर्वोच्च है ।
ममता वह भाव है जिसके आंचल में प्रेम पलता फूलता है ।
ममता की छांव में
बचपन के पांव पले बढ़े
तेरे आंचल के गांव में
मां बढ़े चले बढ़े चले
धूप के लपटें
कांटों की चोटें
सब तेरी ममता की घनी छांव ने समेटे .
एक शायरी ….
मुहब्बत की आदतें दिल को दुरुस्त रखतीं हैं
नफ़रत की आंधियाँ आशियाने खाक करती हैं।।
प्रेम के हर एक प्रसंग में मां अति उत्तम सोपान है।
प्रेम का तृतीय निस्वार्थ आधार स्तंभ प्रकृति है यह सत्य ही है कि प्रकृति में ईश्वर की सत्ता विद्यमान है।
प्रकृति दो शब्दों से मिलकर बना है, प्र+कृति अर्थात् प्र=ईश्वर(परमेश्वर ) कृति ईश्वर के द्वारा बनाया गया।प्रकृति के आधरभूत तत्व जल, थल, नभ , वृक्ष , तरु ,पहाड़ नदियां ,जीवन जंतु , अन्यादि सभी प्रकृति के स्वरूप हैं । इनका सभी का एक मात्र उद्देश्य निस्वार्थ प्रेम भाव रूप है । ये कदापि कुछ नहीं लेते हैं, देना ही इनका स्वभाव है।
इन्हें हमसे प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए
आज प्रेम की वास्तविक परिभाषा एक दम परिवर्तित हो चुकी है इंसान को जहां प्रेम स्वरूप प्रेम और संरक्षण का प्रतिदान करना चाहिए वहीं यह क्रूर मानव उसके रक्षण के स्थान पर उसका भक्षक बन गया है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए दिनोंदिन वनों का ह्रास , कटान कर रहा है। धन के लोभ में उसका मानसिक स्तर इतना गिर गया है कि उसने वन्य जीवों तक को सड़कों पर लाकर खड़ा कर दिया है, बेचारे भूख और पानी दोनों के लिए तरसते जा रहे हैं। वह बस स्वार्थ सिद्धि हेतु प्रकृति को नष्ट भ्रष्ट करने में लगा हुआ है।
उसके इस कुकृत्य के कारण प्रकृति में जो बड़ा असंतुलन आया है उसका परिणाम खुद मनुष्य के साथ साथ बेचारे निरीह जीवन जंतु भी पा रहे हैं।
कितनी ही अप्राकृतिक बीमारियों ने जन्म के लिया है , आधुनिक मानव की प्रवृति और स्वभाव दोनो ही क्रूर हो गए हैं। और इसके आगामी परिणाम जितने भयानक होंगे यह तो हम सबकी कल्पना से भी परे हैं।
वर्तमान में जो भी सोचेंगे और करेंगे , वह भविष्य में फल रूप में परिणत होकर हमारे सामने आता है। किए गए शुभ अशुभ कर्मों की घनी रेखा कभी किसी का पीछा नहीं छोड़ती।
जिस प्रकार हजार गायों के झुंड में बछड़ा को पहचान कर दुग्ध पान करता है ठीक उसी प्रकार हमारे कर्म भी अनेकानेक योनियों में जन्म लेने के पश्चात भी हमारे स्वरूप को पहचान लेते हैं,, और भोग , प्रारब्ध के रूप में हमारे सम्मुख आते हैं।
और हम भार स्वरूप दोष अन्यों पर डालने के प्रयास में जुटे रहते हैं।
“सुख को निज की रचना
दुःख में करे पर की आलोचना
क्यूं ना समझे कर्म की माया
जो बोया वो ही तो पाया,,।।
मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रेममय ही है, कारण अज्ञान , द्वेष , ईर्ष्या , अहंकार आदि विकारों की महीन भित्ति निर्मल प्रेम का स्पर्श नहीं कर पाती जिसके कारण मनुष्य प्रेम के वास्तविक स्वरूप को कभी पहचान नहीं पाता। सारा जीवन इसी कारण को खोजने में व्यस्त रहते हैं कि आखिर वे क्या कारण थे जो मुझे कोई प्रेम ना कर सका ।
प्रेम अभिमान नहीं विनयशीलता है, लघुता नहीं बड़प्पन है,, प्रेम के लिए कोई पात्रता परीक्षा की तनिक आवश्यकता नहीं होती, प्रेम के लिए देश ,काल , परिस्थिति ,अन्य किसी भी आधार की भी जरूरत नहीं होती । प्रेम के लिए प्रथम सोपान उसकी भूमिका में निस्वार्थता है जिसे एक सूत्र में पिरोने के लिए हमें सदैव तत्पर रहना चाहिए
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