प्रार्थना में अतुलनीय बल / पौषमाह कृष्णपक्ष चतुर्थी।
संजीवनी ज्ञानामृत। मनुष्य कितना दीन-हीन, स्वल्प शक्ति वाला, कमजोर है । यह प्रतिदिन के जीवन से पता चलता है ।
उसे पग-पग पर परिस्थितियों के आश्रित होना पड़ता है । कितने ही समय तो ऐसे आते हैं, जब औरों से सहयोग न मिले तो उसकी मृत्यु तक हो सकती है । इस तरह विचार करने से तो मनुष्य की लघुता का ही आभास होता है, किंतु मनुष्य के पास एक ऐसी भी शक्ति है जिसके सहारे वह लोक-परलोक की अनंत सिद्धियों सामर्थ्यों का स्वामी बनता है । वह है प्रार्थना की शक्ति, परमात्मा के प्रति अविचल श्रद्धा और अटूट विश्वास की शक्ति । मनुष्य प्रार्थना से अपने को बदलता है, शक्ति प्राप्त करता है और अपने भाग्य में परिवर्तन कर लेता है । विश्वासपूर्वक की गई प्रार्थना पर परमात्मा दौड़े चले आते हैं । सचमुच उनकी प्रार्थना में बड़ा बल है, अलौकिक शक्ति और अनंत सामर्थ्य है।
“प्रार्थना” विश्वास की प्रतिध्वनि है । रथ के पहियों में जितना अधिक भार होता है, उतना ही गहरा निशान वे धरती में बना देते हैं । प्रार्थना की रेखाएं लक्ष्य तक दौड़ी जाती हैं, और मनोवांछित सफलता खींच लाती हैं । विश्वास जितना उत्कृष्ट होगा परिणाम भी उतने ही सत्वर और प्रभावशाली होंगे ।
“प्रार्थना” आत्मा की आध्यात्मिक भूख है । शरीर की भूख अन्न से मिटती है, इससे शरीर को शक्ति मिलती है । उसी तरह आत्मा की आकुलता को मिटाने और उसमें बल भरने की सत् साधना परमात्मा की ध्यान-आराधना ही है । इससे अपनी आत्मा मे परमात्मा का सूक्ष्म दिव्यत्व झलकने लगता है और अपूर्व शक्ति का सदुपयोग आत्मबल संपन्न व्यक्ति कर सकते हैं । निष्ठापूर्वक की गयी प्रार्थना कभी असफल नहीं हो सकती ।
आत्मा-शुद्धि का आवाहन भी “प्रार्थना” ही है । इससे मनुष्य के अत:करण में देवत्व का विकास होता है । विनम्रता आती है और गुणों के प्रकाश में व्याकुल आत्मा का भय दूर होकर साहस बढ़ने लगता है। देव हमारे साथ रहती है।
ऐसा महसूस होने लगता है, जैसे कोई असाधारण शक्ति सदैव हमारे साथ रहती है । हम जब उससे परित्राण और अभावों की पूर्ति के लिए अपनी विनय प्रकट करते हैं तो सद्य प्रभाव दिखलाई देता है और आत्म-संतोष का भाव पैदा होता है ।