कभी सोचा है इस भागती दौड़ती जिंदगी का मकसद क्या है,, सिर्फ़ दो जून की रोटी , समय से रस्सा कसी है,या अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं के सामने लाचारी और बेबसी है|
कभी सोचा है इस भागती दौड़ती जिंदगी का मकसद क्या है,, सिर्फ़ दो जून की रोटी ही है, फिर समय से रस्सा कसी है,या अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं के सामने लाचार और बेबस है , इंसान तो पहले भी इसी जमीन पर रहता आ रहा है अपने साथ साथ हर पहलू को संतुलन और समय के साथ बांध कर चला आ रहा है, फिर अब ऐसा क्या हो गया है कि अब ना रास्ते खाली हैं ना मन खाली है रास्ते भीड़ और धक्का मुक्की से भरे हुए हैं और मन बुरी लत,दुर्भवानाओं से पटा पड़ा है।हर दिन जमीन बोझ तले भारी होती जा रही है, दबी जा रही है,जिनको आश्रय चाहिए वे बेसहारे हैं लाचार और बेबस हैं
आज एक पल के लिए भी धरती शोर से विहीन नहीं है |हर तरफ कोहराम इस तरह मचा हुआ है मानो जैसे कि समुद्र की लहरों का बवंडर एक डरावने के शोर में सब कुछ समेटे हुए जा रहा है। इस विनाश्वरूपी कोहराम से कितने स्वर ओझल हो गए हैं, कितनी सुंदरता , निर्मलता , कोमलता , प्राणों की प्रखरता धूमिल हो गई है। मनुष्यता खिन्न भी खिन्न हो कर कहीं कोप भवन में दूर चिर निद्रा में चली गई है। कुछ भी उचित नहीं है।
बड़े बड़े आलीशान बंगलों और मकानों में आलस्य इस प्रकार अचेत अवस्था में पड़ा हुआ है जैसे भयंकर बीमारी से ग्रसित कोई मनुष्य कमजोरी के कारण अपनी शैय्या से उठ नहीं पाता। आलस्य मनुष्य को शारीरिक और मानसिक रूप से रूग्ण बना देता है। यही अवस्था आज हमारे समाज की भी है,पर आजकल देर से उठना एक फैशन के तौर पर देखा जाता है
दौड़ना / प्रतिस्पर्धा बुरी बात नहीं है पर गलत दिशा का चयन और स्वार्थयुक्त उद्देश्य… मात्र लेने का काम करते हैं देने का नहीं , यही अवस्था आज के समय की भी है हर कोई इस दौड़ में शामिल है दौड़ का उद्देश्य भिन्न हो सकता है परंतु है तो दौड़ की भीड़ में ही । 24 पहर आदमी रास्ते पर सवार है|
: “दौड़ना कभी व्यर्थ नहीं जाता
“दौड़ना कभी व्यर्थ नहीं जाता
मुख यदि लक्ष्य की और है तो
दिशाओं से जुडा भावार्थ व्यक्त किया नहीं जाता “
आज इंसान जिस समय के साथ मुट्ठी बांधकर दौड़ रहा है ,उसी समय को बहुत पीछे भी छोड़ रहा है खुद को आगे ले जाने की प्रतिस्पर्धा में वह आगे नहीं बल्कि पीछे खिसक रहा है ?उसकी रीढ़ कमजोर होती जा रही है . इसे क्या कहें…..? लालच स्वयं के लिए ,अपने परिवार के लिए या उसके लिए जिसका कोई महत्त्व ही नहीं है |यह भूख इंसान के अन्दर कैसे उत्पन्न हुई ? उसके कर्म वश ,अज्ञानवश , या फिर ईश्वर की इच्छा के अनुरूप यह सब है |
जो भी हो सार तो यही कहता है की इंसान बस फिरकी की तरह दौड़ रहा है और इस दौड़ में जाने कितने असहाय हिस्से रूठ् ते और टूटते जा रहे हैं |
“ सब समय की कुचाल है ,सबका यही हाल है|
कोई फसा है गर्दिश में कोई लत से बदहाल है”|| {विश्लेषण }
……..अभिलाषा
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