अनेक लोग एक छोटी-सी अप्रिय घटना या नगण्य सी हानि से व्यग्र हो उठते हैं और यहाँ तक व्याकुल हो उठते हैं कि जीवन का अंत ही कर देने की सोचने लगते हैं और यदि ऐसा नहीं भी करते हैं तो भविष्य की सारी आकांक्षाओं को छोड़कर एक हारे हुए सिपाही की भाँति हथियार डाल कर अपने से ही विरक्त होकर निकम्मी जिंदगी अपना लेते हैं । यह यह भी एक आत्महत्या का ही रूप है।
इस प्रकार की आत्म हिंसा के मूल में अप्रिय घटना, असफलता अथवा हानि का हाथ नहीं होता, बल्कि इसका कारण होता है मनुष्य की अपनी मानसिक दुर्बलता। हानियाँ अथवा अप्रियताएँ तो आ कर चली जाती है। वे जीवन में ठहरती तो नहीं, किंतु दुर्बल मन व्यक्ति उनकी छाया पकड़ कर बैठ जाता है और अपनी चिंता का सहारा उन्हें वर्धमान किए रहता है ।
घटनाओं की कटुताओं एवं अप्रियताओं की कल्पना भर करके और हठात् उनकी अनुभूति जगा कर अपने को सताया करता है । धीरे-धीरे वह अपनी इस काल्पनिक कटुता का इतना अभ्यस्त हो जाता है कि वह उसके स्वभाव की एक अंग बन जाती है और मनुष्य एक स्थायी निराशा का शिकार बन कर रह जाता है । इन सब अस्वाभाविक दुर्दशा का कारण केवल उनकी “मानसिक दुर्बलता” ही होती है।
जहाँ अनेक व्यक्ति अप्रियता अथवा प्रतिकूलताओं से इस प्रकार की शोचनीय अवस्था में पहुँचकर जिंदगी चौपट कर लेते हैं, वहाँ अनेक लोग अप्रियताओं एवं प्रतिकूलताओं से अधिक सक्रिय, साहसी एवं उद्योगी हो उठते हैं। वे पीछे हटने के बजाए आगे बढ़ते हैं । हथियार डालने के स्थान पर उन्हें आगामी संघर्ष के लिए संजोते संभालते हैं । वे संसार को आँख खोल कर देखते हैं और अपने से कहते हैं — “इस दुनिया में ऐसा कौन है जो जीवन में सदा सफल ही होता रहा है, जिसके सम्मुख कभी अप्रियताएँ अथवा प्रतिकूलताएँ आई ही न हों। किंतु कितने लोग निराश, हताश, निरुत्साह अथवा हेय-हिम्मत होकर बैठे रहते हैं । यदि ऐसा रहा होता तो इस संसार में न तो कोई उद्योग करता दिखाई देता और न हँसता बोलता।
सारा जन समुदाय निराशा के अंधकार से भरा केवल उदास और आँसू बहाता ही दिखाई देता है ।” वे खोज- खोजकर कर्मवीरों के उदाहरण अपने सामने रखते हैं, ऐसे लोगों पर अपनी दृष्टि डालते हैं, जो जीवन में अनेक बार गिरकर उठे होते हैं । वे भविष्य की असफलताओं की कटु कल्पनाएँ नही, वरन् भविष्य की सफलताओं की आराधना किया करते हैं । उनके मनोहर दृष्टिकोण का कारण उनका “मानसिक बल” तथा “आत्मविश्वास” ही होता है ।