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“पूर्ण सत्य” किस बिंदु से किस बिंदु तक|

अपूर्णता: संसार में पूर्ण कुछ नहीं है। केवल ब्रह्म को ही पूर्ण कहा जाता है, जिसके विषय में शुक्ल यजुर्वेद के शांतिपाठ में वर्णित है:
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
इसके कई अर्थ कल्पित हैं। यजुर्वेद का होने से पहले यज्ञ संबंधी अर्थ गीता (8/1-4) के अनुसार:

ब्रह्म पूर्ण है—सर्वं खल्विदं ब्रह्म।

उसका अंश, कर्म (आंतरिक या बाह्य गति) भी पूर्ण है।
कर्म का अंश, यज्ञ (जिससे चक्र में उपयोगी उत्पादन होता है), वह भी पूर्ण है (गीता, 3/10, 16)।
तीन प्रकार के अनंत पूर्ण हैं, जिनका निर्देश विष्णु सहस्रनाम में है—अनंत, असंख्येय, अप्रमेय।

ऋग्वेद मूर्ति का वर्णन करता है—यह संख्येय अनंत है (1, 2, 3,… क्रम में गिन सकते हैं)।
यजुर्वेद गति रूप है—असंख्येय अनंत (रेखा में बिंदुओं की संख्या: 1, 2, 3,… क्रम में नहीं गिन सकते)।
सामवेद महिमा है—अप्रमेय अनंत (गणितीय सूत्रों में नहीं बांधा जा सकता)।
अथर्ववेद ब्रह्म वेद है—अज्ञेय अनंत।
अप्रमेय का अंश असंख्येय है, और उसका अंश संख्येय अनंत है।

गीता (18/18) के अनुसार: ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।

ज्ञान अनंत और अज्ञेय है।
उसका वही अंश ज्ञेय है, जो हमारे साम (प्रभाव क्षेत्र) में है—वेदानां सामवेदोऽस्मि (गीता, 10/22)।
ज्ञेय में वही अंश हम जानते हैं, जो हमारी क्षमता में है।
उसका भी पूर्ण ज्ञान नहीं, केवल परिज्ञान होता है।
जानने की क्रिया में वस्तु बदल जाती है। जितना जानते हैं, उसके लिए शब्द नहीं मिलते। शब्दों से घेर कर वर्णन करते हैं—स पर्यगात्, शुक्रं— (ईशावास्योपनिषद)।
ये तीनों अनंत पूर्व अनंत के अंश हैं।

शाब्दिक तर्क
शाब्दिक तर्क में केवल दो ही विकल्प हैं—सत्य और असत्य। इनके निर्धारण के लिए न्याय दर्शन है।
शब्द, पद, वाक्य का अर्थ जानने के लिए मीमांसा दर्शन है।
समन्वय के लिए उत्तर मीमांसा अर्थात वेदांत दर्शन है।
कई बार वाद-विवाद में अहंकार के कारण गलत पक्ष के समर्थन में भी तर्क या कुतर्क करते हैं। इसे लोकभाषा में “थेथर” कहते हैं, जो संभवतः “अर्थांतर न्यास” का अपभ्रंश है।

कई बार दोनों विपरीत पक्ष कुछ अंश तक सत्य होते हैं। इसके तीन उदाहरण माधवीय शंकर दिग्विजय (अध्याय 8) में हैं:

कर्म अपना फल स्वयं देता है या भगवान् देते हैं।
वेद स्वतः प्रमाण है या परतः प्रमाण।
जगत नित्य है या अनित्य।
इनमें सभी विकल्प सही हैं:

फल कर्म करने से ही मिलता है, किंतु उसकी मात्रा परिस्थिति पर निर्भर है।
वेद स्वतः प्रमाण है, किंतु उसे समझने के लिए वेदांग तथा इतिहास-पुराण की आवश्यकता है।
जगत में प्रायः सब अनित्य हैं, किंतु कुछ अधिक नित्य हैं। इन्हें मर्त्य-अमृत (ऋग्वेद, 1/35/2) या कृतक-अकृतक (विष्णु पुराण, 2/7/19) कहते हैं।
कई बार सत्य के अनेक विकल्प होते हैं। इसमें संदेह तत्व को “स्यात” (शायद) कहते हैं। इसका विचार करने वाले जैन दर्शन को “स्याद्वाद” कहते हैं। सत्य, असत्य तथा स्यात के सात प्रकार के संयोग को “सप्तभंगी न्याय” कहते हैं।

सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यं ऋत-सत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपद्ये॥ (भागवत पुराण, 10/2/26 में ब्रह्मा द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति)।

ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः॥ (अथर्ववेद, शौनक संहिता का आरंभ)।

3. गणना:
मनुष्य की आयु के संदर्भ में केवल 3-4 शब्द ही प्रचलित हैं—बालक, कुमार, युवक, वृद्ध। युवक और वृद्ध को मिलाकर अधेड़ कहा जाता है। लेकिन आयु के अनंत विकल्प हैं। उदाहरण के लिए, 45 वर्ष के व्यक्ति को क्या कहा जाएगा—युवक, अधेड़ या वृद्ध?

इस संदर्भ में यदि वर्ष, मास, दिन, घंटे आदि जोड़ें, तो अनंत विकल्प बनते हैं। यह विचार अनेकांतवाद के अंतर्गत आता है।

गणित में पूर्ण शुद्धि प्रायः कभी संभव नहीं होती। इसके कई कारण हैं:

गणितीय सूत्र की त्रुटि या अपूर्णता:

गणना के लिए प्रयुक्त सूत्र ही गलत हो सकता है, या पूर्ण सही सूत्र बनाना संभव नहीं होता।
उदाहरण के लिए, गाड़ी का इंजन 1 मिनट में 5,000 से 8,000 तक चक्कर लगाता है। लेकिन गणना के लिए मान लिया जाता है कि यह प्रायः स्थिर है (Quasi-static)।
पृथ्वी और अन्य ग्रहों की कक्षा को अक्सर वृत्तीय माना जाता है। इसके बाद इसे दीर्घवृत्त मानकर संशोधन किया जाता है। लेकिन यह संशोधन भी त्रुटिपूर्ण हो सकता है।
कक्षा की त्रुटियों के तीन मुख्य कारण:
(क) सूर्य को कक्षा का केंद्र मानना, जबकि वास्तविक केंद्र सौर मंडल का भार केंद्र होता है।
(ख) ग्रहों पर अन्य ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव।
(ग) दीर्घवृत्त की स्थिरता का अभाव, क्योंकि उसका मंदोच्च (Apsis) भी घूमता रहता है।

सूत्र का हल न मिलना:

कई गणितीय सूत्रों का कोई हल नहीं होता।
यदि हल संभव हो भी, तो अभी तक ज्ञात नहीं हुआ है।
उदाहरण के लिए, वृत्तीय कक्षा का हल उपलब्ध है, लेकिन दीर्घवृत्तीय कक्षा का हल नहीं।
बीजगणित और कैलकुलस के अधिकांश सूत्रों का पूर्ण हल उपलब्ध नहीं है।
असटीक उत्तर:

यदि हल मिल भी जाए, तो वह पूर्ण सटीक उत्तर नहीं होता।
जैसे, 2 का वर्गमूल या 7 को विभाजित करने पर अनंत क्रम वाली संख्या प्राप्त होती है।
सुविधा के लिए, उत्तर को दशमलव के केवल 3 स्थान तक सीमित कर लिया जाता है।

4. माप
हर माप में कुछ न कुछ अशुद्धि होती है। उदाहरण के लिए:

आलू-प्याज तौलते समय 1 किलो में लगभग 50 ग्राम की अशुद्धि हो सकती है।
यदि अधिक शुद्ध तौल की कोशिश की जाए, तो लोग कहते हैं कि “क्यों सोने जैसा तौल रहे हो।”
1 ग्राम सोना तौलने में भी 10 मिलीग्राम तक की अशुद्धि हो सकती है। हवा लगने पर भी भार में थोड़ा बदलाव आ सकता है।
दूरी मापने का उदाहरण:
दिल्ली से मथुरा की दूरी मापने पर हर बार अलग-अलग उत्तर मिलेगा। ऐसा कई कारणों से हो सकता है:

माप किस बिंदु से किस बिंदु तक की जा रही है।
माप किस मार्ग से हो रही है—मार्ग के बीच से या किनारे से।
किसी एक पद्धति से मापने पर भी लगभग 1 किलोमीटर तक की त्रुटि संभव है। ग्रहों और तारों की दूरी मापने में तो इससे भी अधिक अनिश्चितता होती है।

व्यवहार में अशुद्धि की स्वीकृति:
व्यावहारिक रूप से केवल हजार में 1 की अशुद्धि तक स्वीकार की जाती है।

सहस्र शब्द का अर्थ और उपयोग:

“सहस्र” का अर्थ है—साथ (सह) में चलने वाले (स्र)।
सहस्र या हजार व्यक्तियों का भोजन एक साथ बन सकता है, क्योंकि इससे बड़े बर्तन संभालना कठिन होता है।
इसी कारण सेना का गठन या व्यूहबद्धता हजार की संख्या में होती है।
इतिहास में “5 हजारी” या “10 हजारी” मनसबदारों का उल्लेख मिलता है।
पानीपत के तृतीय युद्ध का उदाहरण:
जातिवाद की निंदा में यह कहा जाता है कि पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठा सेना की हार इसलिए हुई क्योंकि उनकी सेना में केवल 3 चूल्हों पर भोजन बन रहा था।
लेकिन सच यह है कि:

2 व्यक्तियों के परिवार में भी 3 या 4 चूल्हे पर भोजन बनता है।
11 लाख की सेना के लिए कम से कम 10,000 चूल्हे आवश्यक थे।
वास्तविकता यह थी कि अन्न के अभाव के कारण चूल्हे जल नहीं सके, जो हार का कारण बना।
मित्रता और स्मरण सीमा:

मित्रता भी लगभग 1000 लोगों तक सीमित होती है, क्योंकि इससे अधिक का स्मरण करना संभव नहीं है।
फेसबुक की मित्रता सीमा भी 5000 की है।