“शरीर की स्वस्थता,” “मन का संतुलीकरण,” “परिवार की सुसंस्कारिता,” पुण्य-परमार्थ का संपादन,” “समाजगत सुव्यवस्था” आदि विषयों पर मनुष्य को आवश्यक ध्यान देना चाहिए और ठीक तरह कार्यान्वित करने के लिए
भरपूर प्रयत्न करना चाहिए, पर यह संभव तभी होता है, जब इनके लिए पर्याप्त समय मिले। मन की तन्मयता इन सभी प्रयोजनों के लिए सुनियोजित रहे यह संभव तभी है जब धन के अत्यधिक मात्रा में संग्रह करने की ललक को पूरा करने में शक्तियों को निरंतर लगाए रहने की ललक से छुटकारा मिले। संग्रह यदि सनक बन गया हो तो उस अर्द्धविक्षिप्तता के लिए कोई क्या कर सकता है, पर अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति भर का लक्ष्य रहे तो वह कुछ ही घंटे के श्रम के द्वारा संपन्न हो सकता है और इतना समय बाकी बचा रह सकता है कि जीवन के साथ जुड़ी हुई महत्वपूर्ण समस्याओं का भली प्रकार समाधान हो सके । निर्वाह कठिन नहीं है । कठिन तो लोभ लिप्सा है जिसकी खाई पाटे नहीं पटती ।
यह मान्यता सर्वथा भ्रमपूर्ण है कि धन से हर चीज खरीदी जा सकती है । सच तो यह है कि सिवाय मनोविनोद की वस्तुओं के, उससे कुछ भी नहीं खरीदा जा सकता । वास्तविक संपदा है – “व्यक्तित्व” । “गुण”, “कर्म”, “स्वभाव” की उत्कृष्टता का समुच्चय । यह यदि आपके पास हो तो सर्व साधारण के सम्मुख अपनी छवि उजागर की जा सकती है । जनमानस का स्नेह, सद्भाव और सहयोग अर्जित किया जा सकता है । यही है वह “चुंबक” जिसके आकर्षण से प्रामाणिकता, प्रतिभा और प्रखरता का धनी बना जा सकता है । यह धन जिस किसी के पास है वह जीवनोपयोगी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है । साथ ही धन भी इतनी मात्रा में सरलतापूर्वक कमा सकता है, जिससे निर्वाह की कोई भी आवश्यकता रुकी न रहे ।
इसे “समझदारों” की “मूर्खता” ही कहना चाहिए कि नगण्य महत्व की धन संपदा के पीछे इस प्रकार पड़े रहा जाता है कि समूची शांति – सामर्थ्य उसी निरर्थक कार्य में खप जाती है और सर्वतोमुखी प्रगति से संबंधित सभी कार्य रुके पड़े रहते हैं ।