दृष्टिकोण की विकृतियाँ हमें अकारण उलझनों में उलझाती हैं और खिन्न रहने के लिए विवश करती हैं। हम गरीब हैं या अमीर, इसका निर्णय दूसरों के साथ तुलना करने पर निर्भर करता है। जब स्वयं को अमीरों की तुलना में आँका जाता है, तो हम हल्के पड़ते हैं और गरीब प्रतीत होते हैं। परंतु, यदि अपने से दरिद्र लोगों के साथ तुलना करें, तो यह प्रतीत होगा कि वर्तमान स्थिति भी कम सौभाग्यशाली नहीं है।
यदि हम अपनी असफलताओं की सूची बनाएँ, तो ऐसा लगेगा कि पग-पग पर हार मिली है, ठोकरें लगी हैं, और बार-बार पराजय का सामना करना पड़ा है। किंतु, यदि सफलताओं की एक दूसरी सूची तैयार करें, तो यह स्पष्ट होगा कि सौभाग्य ने कितना साथ दिया है और ईश्वर के अनुग्रह से समय-समय पर हमें कितनी सफलताएँ प्राप्त हुई हैं।
सुख-दु:ख, सफलता-असफलता, और लाभ-हानि के दोनों पक्ष नित्य हमारे सामने आते हैं। इनमें से हम जिन्हें महत्व देते हैं, वे ही हमारे ध्यान में आते हैं। सौभाग्य और दुर्भाग्य में से, जिन्हें भी गिनना चाहें, उन्हीं की अधिकता दिखाई देगी।
संसार में न तो कोई पूर्ण रूप से सुखी है और न ही पूरी तरह दु:खी। मिश्रित जीवनक्रम ही प्रत्येक व्यक्ति के सामने रहता है। रात और दिन मिलकर ही समय-चक्र को गतिमान करते हैं। नमक और शक्कर के मिले-जुले स्वाद ही सरस लगते हैं। ताना-बाना मिलकर ही कपड़ा बुना जाता है। जन्म और मरण के चक्र पर ही जीवन की धुरी घूमती है। एक की हानि, दूसरे का लाभ बनती है।
दुनिया केवल हमारे लिए नहीं बनी है। सब कुछ हमारी इच्छाओं के अनुसार हो, यह संभव नहीं है। संसार में फैली बुराइयों को देखते रहने के स्थान पर, यदि अच्छाइयों पर भी ध्यान दिया जाए, तो संतुलन बना रह सकता है। अपकार करने वालों की सूची के साथ-साथ, यदि उपकार करने वालों को भी गिन लिया जाए, तो खिन्नता का आधा भाग प्रसन्नता में बदल सकता है।
निकट भविष्य में विपत्ति की आशंका करते रहने से मन भारी हो जाता है। किंतु, यदि उज्ज्वल भविष्य की आशा संजोने लगें, तो इतना मात्र ही आँखों पर छाए निराशा के अंधकार को हटा सकता है। सुखद संभावनाओं की कल्पना से जीवन में नई ज्योति का संचार हो सकता है।
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