दुर्बल मन:स्थिति के लोग प्रायः अशुभ भविष्य की कल्पनाएँ करते रहते हैं। विपत्तियों और असफलताओं की आशंकाएँ उनके मन पर छाई रहती हैं। वे ऐसे कारणों को खोजते और तर्कों को गढ़ते हैं, जो भविष्य में किसी संकट के आगमन की पुष्टि कर सकें। बिगड़ी हुई तस्वीरों में मित्रों की आकृतियाँ शत्रु जैसी बना दी जाती हैं। दूसरों की सामान्य गतिविधियों में भी उन्हें षड्यंत्रों का जाल बिछा हुआ दिखाई देता है।
यह अशुभ कल्पना-चित्र किसी भयंकर दैत्य-दानव से कम नहीं होते। कल्पित भूतों को आमंत्रित करके कितने ही व्यक्ति अपने ही संकेतों के आधार पर बीमार पड़ते, डरते, घबराते और अंततः अपनी जान गँवा बैठते हैं। विपत्ति की संभावना उन्हें दिन-रात डराती रहती है। ऐसे लोग भय से काँपते, खिन्न रहते और सदा निराशा में डूबे दिखाई पड़ते हैं। ऐसी मन:स्थिति अपने आप में एक विपत्ति है।
वास्तविक विपत्ति आने पर जितनी क्षति हो सकती थी, उससे कहीं अधिक हानि इस अशुभ चिंतन की आदत से होती है। ऐसा व्यक्ति अपनी बहुमूल्य चिंतन क्षमता का बड़ा हिस्सा इसी निरर्थक भट्टी में झोंकता और जलाता रहता है।
समाधान एवं सुझाव:
इस स्थिति को बदलना पूर्णतः अपने हाथ की बात है। कल्पनाएँ हमारी अपनी गढ़ी हुई होती हैं, जो हमारे ही चिंतन, तर्क और अनुमान के सहारे खड़ी होती हैं। यदि मस्तिष्क को विधेयात्मक (सकारात्मक) चिंतन की दिशा में प्रशिक्षित किया जाए, तो वह समृद्धि, सफलता, प्रसन्नता और उज्ज्वल भविष्य की उत्साह भरी आशा का आनंद देने में समर्थ हो सकता है। आँखों में चमकने वाली आशा साहस बढ़ाती है और उपयोगी पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देती है।
निराशा में नष्ट होने वाली ऊर्जा को यदि सृजनात्मक दिशा में लगाया जाए, तो मनोबल बढ़ेगा। उस मनोबल की वृद्धि से ऐसी क्षमता विकसित हो सकेगी, जिसके सहारे सचमुच उज्जवल भविष्य का सृजन किया जा सकता है।
अंतिम विचार:
सूक्ष्म शरीर, विशेषकर मन और मस्तिष्क की सृजनात्मक शक्ति को विकसित करने का प्रयास एक महत्वपूर्ण साधना मानी जा सकती है। यदि यह शक्ति अनगढ़ हो, तो यह अत्यंत उपयोगी उपकरण हमारे जीवन को बेहतर बनाने में असफल हो सकता है।
इस दिशा में थोड़ा ध्यान देकर, मस्तिष्क को अशुभ चिंतन से विरत कर विधेयात्मक दिशा अपनाने के लिए प्रशिक्षित और अभ्यस्त किया जाए, तो यह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक मानी जाएगी।
संसार के सभी सफल व्यक्तियों ने सबसे पहले अपने चिंतन को परिष्कृत किया है। यही परिष्कृत चिंतन उनकी गतिविधियों को दिशा देता है। चिंतन और कर्तृत्व इन्हीं दो पैरों के सहारे मनुष्य प्रगति करता है। यदि यह दोनों विकृत हों, तो प्रगति पतन की ओर मुड़ जाती है और स्थिति दु:खद एवं निराशाजनक बन जाती है।