महाराज युधिष्ठिर का संकल्प था कि वे अपनी प्रजा को सदा दान देते रहेंगे। उनके पास एक अक्षय पात्र था, जिसकी विशेषता थी कि उससे जो भी मांगा जाए, वह तुरंत प्रस्तुत कर देता था। युधिष्ठिर ने अपने दान के बल पर शिवि, दधिचि और हरिश्चंद्र को भी पीछे छोड़ने का अभिमान पाल रखा था।
उनके राजमहल में प्रतिदिन सोलह हज़ार आठ ब्राह्मण उपस्थित होते थे। उन्हें भरपेट भोजन के साथ दान दिया जाता था।
भगवान कृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर के दंभ को पहचान लिया और उन्हें घुमाने के बहाने पाताल लोक के स्वामी बलि के पास ले गए। बलि ने बड़े आदर से भगवान कृष्ण तथा युधिष्ठिर की अभ्यर्थना की।
भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर को संकेत करते हुए पूछा, “असुरराज बलि, क्या आप इन्हें जानते हैं?”
बलि ने उत्तर दिया, “मैं इनसे पहले से परिचित नहीं हूं।”
भगवान कृष्ण ने कहा, “यह पांडवों के ज्येष्ठ, महादानी युधिष्ठिर हैं। इनके दान से पृथ्वी पर कोई भी व्यक्ति वंचित नहीं रहता, और आज पृथ्वीवासी तुम्हें याद नहीं करते।”
बलि ने विनम्रता से भगवान को प्रणाम किया और मुस्कुराते हुए बोले, “महाराज, मैंने तो कोई दान नहीं किया। मैंने तो वामन देव को मात्र तीन पग भूमि दी थी।”
भगवान कृष्ण ने कहा, “किंतु बलि, भारत खंड में प्रजा युधिष्ठिर के सिवा सभी दानवीरों को भूल गई है।”
बलि के चेहरे पर तनिक भी ईर्ष्या नहीं दिखी। उन्होंने कहा, “भगवान, यह तो कालचक्र है। वर्तमान के सामने अतीत धुंधला पड़ जाता है। वर्तमान सदैव वैभवशाली होता है। मुझे प्रसन्नता है कि महाराज युधिष्ठिर ने अपने दान बल से मेरी कथाओं को विस्मृत कर दिया है। मैं धर्मराज का दर्शन कर कृतार्थ हुआ।”
भगवान कृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, “इनके पास एक अक्षय पात्र है। इस पात्र से यह प्रतिदिन 16,008 ब्राह्मणों को अपनी इच्छा से भोजन कराते हैं तथा मुंह मांगा दान देते हैं। इसी से इनकी जय-जयकार होती है।”
बलि ने चौंकते हुए कहा, “भगवान, आप इसे दान कहते हैं? यदि यह दान है, तो पाप क्या है?”
बलि ने कहा, “पांडवश्रेष्ठ, आप ब्राह्मणों को भोजन देकर अकर्मण्य बना रहे हैं। तब तो आपकी प्रजा को अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ, अग्निहोत्र आदि कार्य करने की आवश्यकता ही नहीं होगी। केवल अपने दान के दंभ को बल देने के लिए कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों को आलसी बनाना पाप है। मैं इसकी अपेक्षा मर जाना उचित मानता हूं।”
भगवान कृष्ण ने प्रश्न किया, “असुरराज, क्या आपके राज्य में दान नहीं दिया जाता? या प्रजा आपसे दान मांगने नहीं आती?”
बलि ने उत्तर दिया, “यदि मैं अपने राज्य के किसी याचक को तीनों लोकों का स्वामी बना दूं, तब भी वह प्रतिदिन अकर्मण्य होकर मेरा भोजन स्वीकार करने नहीं आएगा।
मेरे राज्य में ब्राह्मण कर्मयोग के उपासक हैं। प्रजा कल्याण साधन किए बिना कोई दान स्वीकार नहीं करती। आपके प्रिय धर्मराज जो दान कर रहे हैं, उससे कर्म और पुरुषार्थ की हानि हो रही है।”
भगवान कृष्ण ने मुस्कुराते हुए युधिष्ठिर की ओर देखा। युधिष्ठिर को अपनी भूल का ज्ञान हो चुका था। उन्होंने अपना सिर झुका लिया।
परंतु आज के राजनीतिज्ञ अपने वोट बैंक के लिए कर्ज माफी तथा बेरोजगारी भत्ता देने की घोषणा कर वर्तमान तथा भावी पीढ़ी को अकर्मण्य और आलसी बनाने के लिए उतारू हैं। उन्हें समझाने के लिए भगवान कृष्ण जैसे अवतार की पुनः आवश्यकता है।