मैं उपदिष्ट भूमि पर अपने चंचल मन को एक झीलमिली ज्योति के रूप में देखा! मैं उसी स्थिति में मन को रोकने का प्रयास करने लगा !कुछ ही क्षणों में उस दिव्य शक्ति की कृपा से मेरा मन उपदिष्ट भूमि पर स्थिर हो गया ! हमारी चेतना ऊध्व ऊर्ध्वगमित हो गई ! मैं निस्प्राण हो गया ! जब चेतना नीचे आई तो चौकी पर बैठी हुई वह अदृश्य शक्ति अदृश्य हो गई ! इसके बाद में सत्संग गोष्ठी के समय दीवार पर टंगी हुई स्वामी जी की छवि को और मुखातिब होकर खड़ा होकर हाथ जोड़ कर रोने लगा ! मेरे शरीर में बहुत कंपन हो रहा था !
मैं वहाँ पर एक अपराधी के रूप में खड़ा था! इतने में ही मैंने देखा अव्यक्त स्वामी जी अपने चित्र से लाठी लिए निकल कर हँसने लगे और कहने लगे ! तुम मेरी शक्ति का पता लगाना चाहते थे !
अब तो देख लिया न ! मैं हाथ जोड़कर रो रहा था और उत्तर दे रहा था ! नहीं प्रभु अब नहीं ! सचमुच मेरे अंदर आपको आजमाने का भाव था किन्तु आप तो अंतर्यामी हैं सब समझ गए ! मैंने कहा मेरे अपराध क्षमा करें प्रभु आगे से ऐसी गलती कभी नहीं होगी ! इसके बाद मैंने देखा कि आचार्य श्री प्रथम और आचार्य श्री द्वितीय की तस्वीर से भी दोनों स्वामी जी हँसते हुए और उसी मेरे आजमाने वाले भाव को कहते हुए प्रगट हो गये ! मैं अपराधी की भांति उनलोगों के सामने रोता – बिलखता हुआ बुदबुदा रहा था ! नहीं प्रभु ; अब नहीं ! मैं बहुत संशयशील रहा !
आप मुझे क्षमा करें !
(स्रोत – स्वामी जी के महाप्रयाण के बाद-पुस्तक)