इस संसार में अनादि काल से राग द्वेष चल रहा है, और आगे भी अनंत काल तक चलता रहेगा। राग द्वेष का मूल कारण है अविद्या।
“जब आत्मा शरीर धारण कर लेता है अर्थात प्रकृति से संबद्ध हो जाता है, तो उसमें अविद्या उत्पन्न हो जाती है। और इस अविद्या के कारण उसमें राग द्वेष भी उत्पन्न होते रहते हैं। इस राग द्वेष के कारण वह झूठ छल कपट अन्याय पक्षपात आदि अनेक प्रकार के बुरे कर्म करता रहता है।”
जब कोई व्यक्ति अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करता है, तो उससे द्वेष रखने वाला दूसरा व्यक्ति उसकी टांग खींचने लगता है। अनेक प्रकार से उसके कार्यों में बाधा डालता है। “द्वेष के कारण वह नहीं चाहता, कि दूसरा व्यक्ति उन्नति करे, अथवा सुख से जिए।” “उस समय वह द्वेष के कारण वैसी ही टांग खींचता है, जैसे कबड्डी के खेल में कोई खिलाड़ी अपने पाले की लाइन को छूने वाला हो, और विपक्षी खिलाड़ी उसकी टांग खींचते हैं।” “खेल में तो ऐसा होता है, परन्तु जीवन व्यवहार में ऐसा नहीं होना चाहिए। क्योंकि खेल और जीवन, इन दोनों में अंतर होता है।”
जीवन व्यवहार में तो सभ्यता और बुद्धिमत्ता इसी बात में है, कि “आप भी सुख पूर्वक जिएं, और दूसरों को भी जीने दें। आप भी उन्नति करें और दूसरों की उन्नति में भी सहायक बनें, बाधक न बनें। तभी सबके जीवन में सुख समृद्धि और खुशहाली हो सकती है।”